ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनम् अज्ञानचेतना । सा द्विधा — कर्मचेतना कर्मफलचेतना च । तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना; ज्ञानादन्यत्रेदं वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना । सा तु समस्तापि संसारबीजं; संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात् । ततो मोक्षार्थिना पुरुषेणाज्ञानचेतनाप्रलयाय सकलकर्मसंन्यासभावनां सकलकर्मफलसंन्यासभावनां च नाटयित्वा स्वभावभूता भगवती ज्ञानचेतनैवैका नित्यमेव नाटयितव्या ।
टीका : — ज्ञानसे अन्यमें (-ज्ञानके सिवा अन्य भावोंमें) ऐसा चेतना (-अनुभव करना) कि ‘यह मैं हूँ,’ सो अज्ञानचेतना है। वह दो प्रकारकी है — कर्मचेतना और कर्मफलचेतना। उसमें, ज्ञानसे अन्यमें (अर्थात् ज्ञानके सिवा अन्य भावोंमें) ऐसा चेतना कि ‘इसको मैं करता हूँ’, वह कर्मचेतना है; और ज्ञानसे अन्यमें ऐसा चेतना कि ‘इसे मैं भोगता हूँ’, वह कर्मफलचेतना है। (इसप्रकार अज्ञानचेतना दो प्रकारसे है।) वह समस्त अज्ञानचेतना संसारका बीज है; क्योंकि संसारके बीज जो आठ प्रकारके (ज्ञानावरणादि) कर्म, उनका बीज वह अज्ञानचेतना है (अर्थात् उससे कर्मोका बन्ध होता है)। इसलिये मोक्षार्थी पुरुषको अज्ञानचेतनाका प्रलय करनेके लिये सकल कर्मोके संन्यास ( – त्याग)की भावनाको तथा सकल कर्मफलके संन्यासकी भावनाको नचाकर, स्वभावभूत ऐसी भगवती ज्ञानचेतनाको ही एकको सदैव नचाना चाहिए।।३८७ से ३८९।।
श्लोकार्थ : — [त्रिकालविषयं ] त्रिकालके (अर्थात् अतीत, वर्तमान और अनागत काल संबंधी) [सर्व कर्म ] समस्त कर्मको [कृत-कारित-अनुमननैः ] कृत-कारित-अनुमोदनासे और — [मनः-वचन-कायैः ] मन-वचन-कायसे [परिहृत्य ] त्याग करके [परमं नैष्कर्म्यम् अवलम्बे ] मैं परम नैष्कर्म्यका ( – उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्थाका) अवलम्बन करता हूँ। (इसप्रकार, समस्त कर्मोंका त्याग करनेवाला ज्ञानी प्रतिज्ञा करता है।)।।२२५।।