कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानाध्यवसानयोर्व्यतिरेकः । इत्येवं ज्ञानस्य सर्वैरेव परद्रव्यैः सह व्यतिरेको
निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः ।
अथ जीव एवैको ज्ञानं, चेतनत्वात्; ततो ज्ञानजीवयोरेवाव्यतिरेकः । न च जीवस्य स्वयं
ज्ञानत्वात्ततो व्यतिरेकः कश्चनापि शंक नीयः । एवं तु सति ज्ञानमेव सम्यग्द्रष्टिः, ज्ञानमेव संयमः,
ज्ञानमेवांगपूर्वरूपं सूत्रं, ज्ञानमेव धर्माधर्मौ, ज्ञानमेव प्रव्रज्येति ज्ञानस्य जीवपर्यायैरपि सहाव्यतिरेको
निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः ।
अथैवं सर्वपरद्रव्यव्यतिरेकेण सर्वदर्शनादिजीवस्वभावाव्यतिरेकेण वा अतिव्याप्तिमव्याप्तिं च
परिहरमाणमनादिविभ्रममूलं धर्माधर्मरूपं परसमयमुद्वम्य स्वयमेव प्रव्रज्यारूपमापद्य दर्शनज्ञान-
चारित्रस्थितिरूपं स्वसमयमवाप्य मोक्षमार्गमात्मन्येव परिणतं कृत्वा समवाप्तसम्पूर्णविज्ञानघनस्वभावं
क्योंकि काल अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और कालके व्यतिरेक है। आकाश ( – आकाशद्रव्य)
ज्ञान नहीं है, क्योंकि आकाश अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और आकाशके व्यतिरेक है। अध्यवसान
ज्ञान नहीं है, क्योंकि अध्यवसान अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और (कर्मोदयकी प्रवृत्तिरूप)
अध्यवसानके व्यतिरेक है। इसप्रकार यों ज्ञानका समस्त परद्रव्योंके साथ व्यतिरेक निश्चयसाधित
देखना चाहिए (अर्थात् निश्चयसे सिद्ध हुआ समझना — अनुभव करना चाहिए)।
अब, जीव ही एक ज्ञान है, क्योंकि जीव चेतन है; इसलिये ज्ञानके और जीवके अव्यतिरेक
( – अभेद) है। और ज्ञानका जीवके साथ व्यतिरेक किंचित्मात्र भी शंका करने योग्य नहीं है
(अर्थात् ज्ञानकी जीवसे भिन्नता होगी ऐसी जरा भी शंका करने योग्य नहीं है), क्योंकि जीव स्वयं
ही ज्ञान है। ऐसा (ज्ञान जीवसे अभिन्न) होनेसे, ज्ञान ही सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान ही संयम है, ज्ञान
ही अंगपूर्वरूप सूत्र है, ज्ञान ही धर्म-अधर्म (अर्थात् पुण्य-पाप) है, ज्ञान ही प्रव्रज्या ( – दीक्षा,
निश्चयचारित्र) है — इसप्रकार ज्ञानका जीवपर्यायोंके साथ भी अव्यतिरेक निश्चयसाधित देखना
(अर्थात् निश्चय द्वारा सिद्ध हुआ समझना — अनुभव करना) चाहिए।
अब, इसप्रकार सर्व परद्रव्योंके साथ व्यतिरेकके द्वारा और सर्व दर्शनादि
जीवस्वभावोंके साथ अव्यतिरेकके द्वारा अतिव्याप्तिको और अव्याप्तिको दूर करता हुआ,
अनादि विभ्रम जिसका मूल है ऐसे धर्म-अधर्मरूप (पुण्य-पापरूप, शुभ-अशुभरूप,)
परसमयको दूर करके, स्वयं ही प्रव्रज्यारूपको प्राप्त करके (अर्थात् स्वयं ही निश्चयचारित्ररूप
दीक्षाभावको प्राप्त करके), दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें स्थितिरूप स्वसमयको प्राप्त करके,
मोक्षमार्गको अपनेमें ही परिणत करके, जिसने सम्पूर्ण विज्ञानघनस्वभावको प्राप्त किया है
ऐसा, त्यागग्रहणसे रहित, साक्षात् समयसारभूत परमार्थरूप शुद्धज्ञान एक अवस्थित