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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
हानोपादानशून्यं साक्षात्समयसारभूतं परमार्थरूपं शुद्धं ज्ञानमेकमवस्थितं द्रष्टव्यम् ।
( – निश्चल) देखना (अर्थात् प्रत्यक्ष स्वसंवेदनसे अनुभव करना) चाहिए।
भावार्थ : — यहाँ ज्ञानको समस्त परद्रव्योंसे भिन्न और अपनी पर्यायोंसे अभिन्न बताया
है, इसलिए अतिव्याप्ति और अव्याप्ति नामक लक्षण-दोष दूर हो गये। आत्माका लक्षण उपयोग
है, और उपयोगमें ज्ञान प्रधान है; वह (ज्ञान) अन्य अचेतन द्रव्योंमें नहीं है, इसलिये वह
अतिव्याप्तिवाला नहीं है, और अपनी सर्व अवस्थाओंमें है; इसलिए अव्याप्तिवाला नहीं है। इसप्रकार
ज्ञानलक्षण कहनेसे अतिव्याप्ति और अव्याप्ति दोष नहीं आते।
यहाँ ज्ञानको ही प्रधान करके आत्माका अधिकार है, क्योंकि ज्ञानलक्षणसे ही आत्मा
सर्व परद्रव्योंसे भिन्न अनुभवगोचर होता है। यद्यपि आत्मामें अनन्त धर्म हैं, तथापि उनमेंसे
कितने ही तो छद्मस्थके अनुभवगोचर ही नहीं हैं। उन धर्मोंके कहनेसे छद्मस्थ ज्ञानी
आत्माको कैसे पहिचान सकता है ? और कितने ही धर्म अनुभवगोचर हैं, परन्तु उनमेंसे
कितने ही तो — अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि तो — अन्य द्रव्योंके साथ सामान्य अर्थात्
समान ही हैं, इसलिये उनके कहनेसे पृथक् आत्मा नहीं जाना जा सकता, और कितने ही
(धर्म) परद्रव्यके निमित्तसे हुये हैं उन्हें कहनेसे परमार्थभूत आत्माका शुद्ध स्वरूप कैसे जाना
जा सकता है ? इसलिए ज्ञानके कहनेसे ही छद्मस्थ ज्ञानी आत्माको पहिचान सकता है।
यहाँ ज्ञानको आत्माका लक्षण कहा है इतना ही नहीं, किन्तु ज्ञानको ही आत्मा कहा
है; क्योंकि अभेदविवक्षामें गुणगुणीका अभेद होनेसे, ज्ञान है सो ही आत्मा है। अभेदविवक्षामें
चाहे ज्ञान कहो या आत्मा — कोई विरोध नहीं है; इसलिये यहाँ ज्ञान कहनेसे आत्मा ही
समझना चाहिए।
टीकामें अन्तमें यह कहा गया है कि — जो, अपनेमें अनादि अज्ञानसे होनेवाली
शुभाशुभ उपयोगरूप परसमयकी प्रवृत्तिको दूर करके, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें प्रवृत्तिरूप
स्वसमयको प्राप्त करके, ऐसे स्वसमयरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गमें अपनेको परिणमित
करके, सम्पूर्णविज्ञानघनस्वभावको प्राप्त हुआ है, और जिसमें कोई त्याग-ग्रहण नहीं है, ऐसे
साक्षात् समयसारस्वरूप, परमार्थभूत, निश्चल रहा हुआ, शुद्ध, पूर्ण ज्ञानको (पूर्ण
आत्मद्रव्यको) देखना चाहिए। यहाँ ‘देखना’ तीन प्रकारसे समझना चाहिए। (१) शुद्धनयका
ज्ञान करके पूर्ण ज्ञानका श्रद्धान करना सो प्रथम प्रकारका देखना है। वह अविरत आदि
अवस्थामें भी होता है। (२) ज्ञान-श्रद्धान होनेके बाद बाह्य सर्व परिग्रहका त्याग करके
उसका ( – पूर्ण ज्ञानका) अभ्यास करना, उपयोगको ज्ञानमें ही स्थिर करना, जैसा शुद्धनयसे