कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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(शार्दूलविक्रीडित)
अन्येभ्यो व्यतिरिक्त मात्मनियतं बिभ्रत्पृथग्वस्तुता-
मादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितम् ।
मध्याद्यन्तविभागमुक्त सहजस्फारप्रभाभासुरः
शुद्धज्ञानघनो यथाऽस्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ।।२३५।।
अपने स्वरूपको सिद्ध समान जाना-श्रद्धान किया था वैसा ही ध्यानमें लेकर चित्तको
एकाग्र – स्थिर करना, और पुनः पुनः उसीका अभ्यास करना, सो दूसरे प्रकारका देखना है।
इसप्रकारका देखना अप्रमत्तदशामें होता है। जहाँ तक उस प्रकारके अभ्याससे केवलज्ञान
उत्पन्न न हो वहाँ तक ऐसा अभ्यास निरन्तर रहता है। यह, देखनेका दूसरा प्रकार हुआ।
यहाँ तक तो पूर्ण ज्ञानका शुद्धनयके आश्रयसे परोक्ष देखना है। और (३) जब केवलज्ञान
उत्पन्न होता है तब साक्षात् देखना है, सो यह तीसरे प्रकारका देखना है। उस स्थितिमें ज्ञान
सर्व विभावोंसे रहित होता हुआ सबका ज्ञाता-द्रष्टा है, इसलिए यह तीसरे प्रकारका देखना
पूर्ण ज्ञानका प्रत्यक्ष देखना है।।३९० से ४०४।।
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अन्येभ्यः व्यतिरिक्तम् ] अन्य द्रव्योंसे भिन्न, [आत्म-नियतं ] अपनेमें
ही नियत, [पृथक्-वस्तुताम्-बिभ्रत् ] पृथक् वस्तुत्वको धारण करता हुआ ( — वस्तुका
स्वरूप सामान्यविशेषात्मक होनेसे स्वयं भी सामान्यविशेषात्मकताको धारण करता हुआ),
[आदान-उज्झन-शून्यम् ] ग्रहणत्यागसे रहित, [एतत् अमलं ज्ञानं ] यह अमल ( – रागादिक
मलसे रहित) ज्ञान [तथा-अवस्थितम् यथा ] इसप्रकार अवस्थित ( – निश्चल) अनुभवमें आता
है कि जैसे [मध्य-आदि-अंत-विभाग-मुक्त-सहज-स्फार-प्रभा-भासुरः अस्य शुद्ध-ज्ञान-घनः
महिमा ] आदि-मध्य-अन्तरूप विभागोंसे रहित ऐसी सहज फै ली हुई प्रभाके द्वारा देदीप्यमान
ऐसी उसकी शुद्धज्ञानघनस्वरूप महिमा [नित्य-उदितः-तिष्ठति ] नित्य-उदित रहे ( — शुद्ध
ज्ञानकी पुंजरूप महिमा सदा उदयमान रहे)।
भावार्थ : — ज्ञानका पूर्ण रूप सबको जानना है। वह जब प्रगट होता है तब सर्व
विशेषणोंसे सहित प्रगट होता है; इसलिए उसकी महिमाको कोई बिगाड़ नहीं सकता, वह
सदा उदित रहती है।२३५।
‘ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्माका आत्मामें धारण करना सो यही ग्रहण करने योग्य सब कुछ
ग्रहण किया और त्यागने योग्य सब कुछ त्याग किया है’ — इस अर्थका काव्य कहते हैं : —