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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(उपजाति)
उन्मुक्त मुन्मोच्यमशेषतस्तत्
तथात्तमादेयमशेषतस्तत् ।
यदात्मनः संहृतसर्वशक्ते :
पूर्णस्य सन्धारणमात्मनीह ।।२३६।।
(अनुष्टुभ्)
व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितम् ।
कथमाहारकं तत्स्याद्येन देहोऽस्य शंक्यते ।।२३७।।
अत्ता जस्सामुत्तो ण हु सो आहारगो हवदि एवं ।
आहारो खलु मुत्तो जम्हा सो पोग्गलमओ दु ।।४०५।।
श्लोकार्थ : — [संहृत-सर्व-शक्तेः पूर्णस्य आत्मनः ] जिसने सर्व शक्तियोंको समेट लिया
है ( – अपनेमें लीन कर लिया है) ऐसे पूर्ण आत्माका [आत्मनि इह ] आत्मामें [यत् सन्धारणम् ]
धारण करना [तत् उन्मोच्यम् अशेषतः उन्मुक्तम् ] वही छोड़ने योग्य सब कुछ छोड़ा है [तथा ]
और [आदेयम् तत् अशेषतः आत्तम् ] ग्रहण करने योग्य सब ग्रहण किया है।
भावार्थ : — पूर्णज्ञानस्वरूप, सर्व शक्तियोंका समूहरूप जो आत्मा है उसे आत्मामें धारण
कर रखना सो यही, जो कुछ त्यागने योग्य था उस सबको त्याग दिया और ग्रहण करने योग्य
जो कुछ था उसे ग्रहण किया है। यही कृतकृत्यता है।२३६।
‘ऐसे ज्ञानको देह ही नहीं है’ — इस अर्थका, आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [एवं ज्ञानम् परद्रव्यात् व्यतिरिक्तं अवस्थितम् ] इसप्रकार (पूर्वोक्त रीतिसे)
ज्ञान परद्रव्यसे पृथक् अवस्थित ( – निश्चल रहा हुआ) है; [तत् आहारकं कथम् स्यात् येन अस्य
देहः शंक्यते ] वह (ज्ञान) आहारक (अर्थात् कर्म-नोकर्मरूप आहार करनेवाला) कैसे हो सकता
है कि जिससे उसके देहकी शंका की जा सके ? (ज्ञानके देह हो ही नहीं सकती, क्योंकि उसके
कर्म-नोकर्मरूप आहार ही नहीं है।)।२३७।
अब, इस अर्थको गाथाओंमें कहते हैं : —
यों आत्मा जिसका अमूर्तिक सो न आहारक बने।
पुद्गलमयी आहार यों आहार तो मूर्तिक अरे।।४०५।।