जो द्रव्य है पर, ग्रहण नहिं, नहिं त्याग उसका हो सके।
ऐसा हि उसका गुण कोई प्रायोगि अरु वैस्रसिक है।।४०६।।
इस हेतुसे जो शुद्ध आत्मा सो नहीं कुछ भी ग्रहे।
छोड़े नहीं कुछ भी अहो ! परद्रव्य जीव-अजीवमें।।४०७।।
गाथार्थ : — [एवम् ] इसप्रकार [यस्य आत्मा ] जिसका आत्मा [अमूर्तः ] अमूर्तिक है[सः खलु ] वह वास्तवमें [आहारकः न भवति ] आहारक नहीं है; [आहारः खलु ] आहार तो [मूर्तः ] मूर्तिक है, [यस्मात् ] क्योंकि [सः तु पुद्गलमयः ] वह पुद्गलमय है।
[यत् परद्रव्यम् ] जो परद्रव्य है [न अपि शक्यते ग्रहीतुं यत् ] वह ग्रहण नहीं किया जासकता [न विमोक्तुं यत् च ] और छोड़ा नहीं जा सकता; [सः कः अपि च ] ऐसा ही कोई [तस्य ] उसका ( – आत्माका) [प्रायोगिकः वा अपि वैस्रसः गुणः ] प्रायोगिक तथा वैस्रसिक गुणहै।
[तस्मात् तु ] इसलिये [यः विशुद्धः चेतयिता ] जो विशुद्ध आत्मा है [सः ] वह[जीवाजीवयोः द्रव्ययोः ] जीव और अजीव द्रव्योंमें ( – परद्रव्योंमें) [किंचित् न एव गृह्णाति ] कुछभी ग्रहण नहीं करता [किंचित् अपि न एव विमुञ्चति ] तथा कुछ भी त्याग नहीं करता।