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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
ज्ञानं हि परद्रव्यं किंचिदपि न गृह्णाति न मुंचति च, प्रायोगिकगुणसामर्थ्यात्
वैस्रसिकगुणसामर्थ्याद्वा ज्ञानेन परद्रव्यस्य गृहीतुं मोक्तुं चाशक्यत्वात् । परद्रव्यं च न
ज्ञानस्यामूर्तात्मद्रव्यस्य मूर्तपुद्गलद्रव्यत्वादाहारः । ततो ज्ञानं नाहारकं भवति । अतो ज्ञानस्य
देहो न शंक नीयः ।
(अनुष्टुभ्)
एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते ।
ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिंगं मोक्षकारणम् ।।२३८।।
टीका : — ज्ञान परद्रव्यको किंचित्मात्र भी न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता है,
क्योंकि प्रायोगिक (अर्थात् पर निमित्तसे उत्पन्न) गुणकी सामर्थ्यसे तथा वैस्रसिक (अर्थात्
स्वाभाविक) गुणकी सामर्थ्यसे ज्ञानके द्वारा परद्रव्यका ग्रहण तथा त्याग करना अशक्य है। और,
(कर्म-नोकर्मादिरूप) परद्रव्य ज्ञानका — अमूर्तिक आत्मद्रव्यका — आहार नहीं है, क्योंकि वह
मूर्तिक पुद्गलद्रव्य है; (अमूर्तिकके मूर्तिक आहार नहीं होता)। इसलिये ज्ञान आहारक नहीं है।
इसलिये ज्ञानके देहकी शंका न करनी चाहिए।
(यहाँ ‘ज्ञान’ से ‘आत्मा’ समझना चाहिए; क्योंकि, अभेद विवक्षासे लक्षणमें ही
लक्ष्यका व्यवहार किया जाता है। इस न्यायसे टीकाकार आचार्यदेव आत्माको ज्ञान ही कहते
आये हैं।)
भावार्थ : — ज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तिक है और आहार तो कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलमय
मूर्तिक है; इसलिए परमार्थतः आत्माके पुद्गलमय आहार नहीं है। और आत्माका ऐसा ही
स्वभाव है कि वह परद्रव्यको कदापि ग्रहण नहीं करता; — स्वभावरूप परिणमित हो या
विभावरूप परिणमित हो, — अपने ही परिणामका ग्रहण-त्याग होता है, परद्रव्यका ग्रहण-त्याग
तो किंचित्मात्र भी नहीं होता।
इसप्रकार आत्माके आहार न होनेसे उसके देह ही नहीं है।।४०४ से ४०७।।
जब कि आत्माके देह है ही नहीं, इसलिये पुद्गलमय देहस्वरूप लिंग ( – वेष, बाह्य
चिह्न) मोक्षका कारण नहीं है — इस अर्थका, आगामी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैंः —
श्लोकार्थ : — [एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य देहः एव न विद्यते ] इसप्रकार शुद्धज्ञानके देह ही
नहीं है; [ततः ज्ञातुः देहमयं लिङ्गं मोक्षकारणम् न ] इसलिए ज्ञाताको देहमय चिह्न मोक्षका
कारण नहीं है।२३८।