Samaysar (Hindi). Kalash: 238.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
ज्ञानं हि परद्रव्यं किंचिदपि न गृह्णाति न मुंचति च, प्रायोगिकगुणसामर्थ्यात्
वैस्रसिकगुणसामर्थ्याद्वा ज्ञानेन परद्रव्यस्य गृहीतुं मोक्तुं चाशक्यत्वात् परद्रव्यं च न
ज्ञानस्यामूर्तात्मद्रव्यस्य मूर्तपुद्गलद्रव्यत्वादाहारः ततो ज्ञानं नाहारकं भवति अतो ज्ञानस्य
देहो न शंक नीयः
(अनुष्टुभ्)
एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते
ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिंगं मोक्षकारणम् ।।२३८।।
टीका :ज्ञान परद्रव्यको किंचित्मात्र भी न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता है,
क्योंकि प्रायोगिक (अर्थात् पर निमित्तसे उत्पन्न) गुणकी सामर्थ्यसे तथा वैस्रसिक (अर्थात्
स्वाभाविक) गुणकी सामर्थ्यसे ज्ञानके द्वारा परद्रव्यका ग्रहण तथा त्याग करना अशक्य है
और,
(कर्म-नोकर्मादिरूप) परद्रव्य ज्ञानकाअमूर्तिक आत्मद्रव्यकाआहार नहीं है, क्योंकि वह
मूर्तिक पुद्गलद्रव्य है; (अमूर्तिकके मूर्तिक आहार नहीं होता) इसलिये ज्ञान आहारक नहीं है
इसलिये ज्ञानके देहकी शंका न करनी चाहिए
(यहाँ ‘ज्ञान’ से ‘आत्मा’ समझना चाहिए; क्योंकि, अभेद विवक्षासे लक्षणमें ही
लक्ष्यका व्यवहार किया जाता है इस न्यायसे टीकाकार आचार्यदेव आत्माको ज्ञान ही कहते
आये हैं)
भावार्थ :ज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तिक है और आहार तो कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलमय
मूर्तिक है; इसलिए परमार्थतः आत्माके पुद्गलमय आहार नहीं है और आत्माका ऐसा ही
स्वभाव है कि वह परद्रव्यको कदापि ग्रहण नहीं करता;स्वभावरूप परिणमित हो या
विभावरूप परिणमित हो,अपने ही परिणामका ग्रहण-त्याग होता है, परद्रव्यका ग्रहण-त्याग
तो किंचित्मात्र भी नहीं होता
इसप्रकार आत्माके आहार न होनेसे उसके देह ही नहीं है।।४०४ से ४०७।।
जब कि आत्माके देह है ही नहीं, इसलिये पुद्गलमय देहस्वरूप लिंग (वेष, बाह्य
चिह्न) मोक्षका कारण नहीं हैइस अर्थका, आगामी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैंः
श्लोकार्थ :[एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य देहः एव न विद्यते ] इसप्रकार शुद्धज्ञानके देह ही
नहीं है; [ततः ज्ञातुः देहमयं लिङ्गं मोक्षकारणम् न ] इसलिए ज्ञाताको देहमय चिह्न मोक्षका
कारण नहीं है
।२३८।