ज्ञानं हि परद्रव्यं किंचिदपि न गृह्णाति न मुंचति च, प्रायोगिकगुणसामर्थ्यात् वैस्रसिकगुणसामर्थ्याद्वा ज्ञानेन परद्रव्यस्य गृहीतुं मोक्तुं चाशक्यत्वात् । परद्रव्यं च न ज्ञानस्यामूर्तात्मद्रव्यस्य मूर्तपुद्गलद्रव्यत्वादाहारः । ततो ज्ञानं नाहारकं भवति । अतो ज्ञानस्य देहो न शंक नीयः ।
टीका : — ज्ञान परद्रव्यको किंचित्मात्र भी न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता है, क्योंकि प्रायोगिक (अर्थात् पर निमित्तसे उत्पन्न) गुणकी सामर्थ्यसे तथा वैस्रसिक (अर्थात् स्वाभाविक) गुणकी सामर्थ्यसे ज्ञानके द्वारा परद्रव्यका ग्रहण तथा त्याग करना अशक्य है। और, (कर्म-नोकर्मादिरूप) परद्रव्य ज्ञानका — अमूर्तिक आत्मद्रव्यका — आहार नहीं है, क्योंकि वह मूर्तिक पुद्गलद्रव्य है; (अमूर्तिकके मूर्तिक आहार नहीं होता)। इसलिये ज्ञान आहारक नहीं है। इसलिये ज्ञानके देहकी शंका न करनी चाहिए।
(यहाँ ‘ज्ञान’ से ‘आत्मा’ समझना चाहिए; क्योंकि, अभेद विवक्षासे लक्षणमें ही लक्ष्यका व्यवहार किया जाता है। इस न्यायसे टीकाकार आचार्यदेव आत्माको ज्ञान ही कहते आये हैं।)
भावार्थ : — ज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तिक है और आहार तो कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलमय मूर्तिक है; इसलिए परमार्थतः आत्माके पुद्गलमय आहार नहीं है। और आत्माका ऐसा ही स्वभाव है कि वह परद्रव्यको कदापि ग्रहण नहीं करता; — स्वभावरूप परिणमित हो या विभावरूप परिणमित हो, — अपने ही परिणामका ग्रहण-त्याग होता है, परद्रव्यका ग्रहण-त्याग तो किंचित्मात्र भी नहीं होता।
चिह्न) मोक्षका कारण नहीं है — इस अर्थका, आगामी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैंः —
श्लोकार्थ : — [एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य देहः एव न विद्यते ] इसप्रकार शुद्धज्ञानके देह ही नहीं है; [ततः ज्ञातुः देहमयं लिङ्गं मोक्षकारणम् न ] इसलिए ज्ञाताको देहमय चिह्न मोक्षका कारण नहीं है।२३८।