केचिद्द्रव्यलिंगमज्ञानेन मोक्षमार्गं मन्यमानाः सन्तो मोहेन द्रव्यलिंगमेवोपाददते । तदनुपपन्नम्; सर्वेषामेव भगवतामर्हद्देवानां, शुद्धज्ञानमयत्वे सति द्रव्यलिंगाश्रयभूत-
गाथार्थ : — [बहुप्रकाराणि ] बहुत प्रकारके [पाषण्डिलिङ्गानि वा ] मुनिलिंगोंको [गृहीलिङ्गानि वा ] अथवा गृहीलिंगोंको [गृहीत्वा ] ग्रहण करके [मूढाः ] मूढ (अज्ञानी) जन [वदन्ति ] यह कहते हैं कि [इदं लिङ्गम् ] यह (बाह्य) लिंग [मोक्षमार्गः इति ] मोक्षमार्ग है।
[तु ] परन्तु [लिङ्गं ] लिंग [मोक्षमार्गः न भवति ] मोक्षमार्ग नहीं है; [यत् ] क्योंकि [अर्हन्तः ] अर्हन्तदेव [देहनिर्ममाः ] देहके प्रति निर्मम वर्तते हुए [लिङ्गं मुक्त्वा ] लिंगको छोड़कर [दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते ] दर्शन-ज्ञान-चारित्रका ही सेवन करते हैं।
टीका : — कितने ही लोग अज्ञानसे द्रव्यलिंगको मोक्षमार्ग मानते हुए मोहसे द्रव्यलिंगको ही ग्रहण करते हैं। यह ( – द्रव्यलिंगको मोक्षमार्ग मानकर ग्रहण करना सो) अनुपपन्न अर्थात् अयुक्त है; क्योंकि सभी भगवान अर्हन्तदेवोंके, शुद्धज्ञानमयता होनेसे द्रव्यलिंगके आश्रयभूत शरीरके