परिणममानं ज्ञानमात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति । एवमुभयत्रापि ज्ञानमात्रस्यानन्यतया
भवति भूमिकालाभः । ततस्तत्र नित्यदुर्ललितास्ते स्वत एव क्रमाक्रमप्रवृत्तानेकान्तमूर्तयः
अतिशयतासे प्रवर्तित जो सकल कर्मका क्षय उससे प्रज्वलित (देदीप्यमान) हुवे जो अस्खलित
विमल स्वभावभावत्व द्वारा स्वयं सिद्धरूपसे परिणमता ऐसा एक ही ज्ञानमात्र (भाव) उपाय-
उपेयभावको सिद्ध करता है।
(भावार्थ : — यह आत्मा अनादि कालसे मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रके कारण संसारमें भ्रमण करता है। वह सुनिश्चलतया ग्रहण किये गये व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी वृद्धिकी परम्परासे क्रमशः स्वरूपानुभव जबसे करता है तबसे ज्ञान साधकरूपसे परिणमित होता है, क्योंकि ज्ञानमें निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेद अन्तर्भूत हैं। निश्चय- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रके प्रारंभसे लेकर, स्वरूपानुभवकी वृद्धि करते करते जब तक निश्चय- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी पूर्णता न हो, तब तक ज्ञानका साधक रूपसे परिणमन है। जब निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी पूर्णतासे समस्त कर्मोंका नाश होता है अर्थात् साक्षात् मोक्ष होता है तब ज्ञान सिद्ध रूपसे परिणमित होता है, क्योंकि उसका अस्खलित निर्मल स्वभावभाव प्रगट देदीप्यमान हुआ है। इसप्रकार साधक रूपसे और सिद्ध रूपसे — दोनों रूपसे परिणमित होनेवाला एक ही ज्ञान आत्मवस्तुको उपाय-उपेयपना साधित करता है।)
इसप्रकार दोनोंमें ( – उपाय तथा उपेयमें – ) ज्ञानमात्रकी अनन्यता है अर्थात् अन्यपना नहीं है; इसलिये सदा अस्खलित एक वस्तुका ( – ज्ञानमात्र आत्मवस्तुका – ) निष्कम्प ग्रहण करनेसे, मुमुक्षुओंको, कि जिन्हें अनादि संसारसे भूमिकाकी प्राप्ति न हुई हो उन्हें भी, तत्क्षण ही भूमिकाकी प्राप्ति होती है; फि र उसीमें नित्य मस्ती करते हुए ( – लीन रहते हुए) वे मुमुक्षु — जो कि स्वतः ही, क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवर्तमान अनेक अन्तकी (अनेक धर्मकी) मूर्तियाँ हैं वे — साधकभावसे उत्पन्न होनेवाली परम प्रकर्षकी १कोटिरूप सिद्धिभावके भाजन होते हैं। परन्तु जिसमें अनेक अन्त अर्थात् धर्म गर्भित हैं ऐसे एक ज्ञानमात्र भावरूप इस भूमिको जो प्राप्त नहीं करते, वे सदा अज्ञानी रहते हुए, ज्ञानमात्र भावका स्वरूपसे अभवन और पररूपसे भवन देखते ( – श्रद्धा १कोटि = अन्तिमता; उत्कृष्टता; ऊँ चेमें ऊँ चा बिन्दु; हद।