भूमिं श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः ।
मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति ।।२६६।।
यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्त : ।
पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः ।।२६७।।
हुए, उपाय-उपेयभावसे अत्यन्त भ्रष्ट होते हुए संसारमें परिभ्रमण ही करते हैं।
श्लोकार्थ : — [ये ] जो पुरुष, [कथम् अपि अपनीत-मोहाः ] किसी भी प्रकारसे जिनका मोह दूर हो गया है ऐसा होता हुआ, [ज्ञानमात्र-निज-भावमयीम् अकम्पां भूमिं ] ज्ञानमात्र निज भावमय अकम्प भूमिकाका (अर्थात् ज्ञानमात्र जो अपना भाव उस-मय निश्चल भूमिकाका) [श्रयन्ति ] आश्रय लेते हैं [ते साधकत्वम् अधिगम्य सिद्धाः भवन्ति ] वे साधकत्वको प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं; [तु ] परन्तु [मूढाः ] जो मूढ़ ( – मोही, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि) है वे [अमूम् अनुपलभ्य ] इस भूमिकाको प्राप्न न करके [परिभ्रमन्ति ] संसारमें परिभ्रमण करते हैं।
भावार्थ : — जो भव्य पुरुष, गुरुके उपदेशसे अथवा स्वयमेव काललब्धिको प्राप्त करके मिथ्यात्वसे रहित होकर, ज्ञानमात्र अपने स्वरूपको प्राप्त करते हैं, उसका आश्रय लेते हैं; वे साधक होते हुए सिद्ध हो जाते हैं; परन्तु जो ज्ञानमात्र – निजको प्राप्त नहीं करते, वे संसारमें परिभ्रमण करते हैं।२६६।