(वसन्ततिलका)
चित्पिण्डचण्डिमविलासिविकासहासः
शुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः ।
आनन्दसुस्थितसदास्खलितैकरूप-
स्तस्यैव चायमुदयत्यचलार्चिरात्मा ।।२६८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
परिशिष्ट
६१९
प्रवीणता तथा (रागादिक अशुद्ध परिणतिके त्यागरूप) सुनिश्चल संयम — इन दोनोंके द्वारा [इह
उपयुक्तः ] अपनेमें उपयुक्त रहता हुआ (अर्थात् अपने ज्ञानस्वरूप आत्मामें उपयोगको लगाता
हुआ) [अहः अहः स्वम् भावयति ] प्रतिदिन अपनेको भाता है ( – निरन्तर अपने आत्माकी भावना
करता है), [सः एकः ] वही एक (पुरुष); [ज्ञान-क्रिया-नय-परस्पर-तीव्र-मैत्री-पात्रीकृतः ]
ज्ञाननय और क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्रीका पात्ररूप होता हुआ, [इमाम् भूमिम् श्रयति ] इस
(ज्ञान मात्र निजभावमय) भूमिकाका आश्रय करता है।
भावार्थ : — जो ज्ञाननयको ही ग्रहण करके क्रियानयको छोड़ता है, उस प्रमादी और
स्वच्छन्दी पुरुषको इस भूमिकाकी प्राप्ति नहीं हुई है। जो क्रियानयको ही ग्रहण करके ज्ञाननयको
नहीं जानता, उस (व्रत – समिति – गुप्तिरूप) शुभ कर्मसे संतुष्ट पुरुषको भी इस निष्कर्म भूमिकाकी
प्राप्ति नहीं हुई है। जो पुरुष अनेकान्तमय आत्माको जानता है ( – अनुभव करता है) तथा सुनिश्चल
संयममें प्रवृत्त है ( – रागादिक अशुद्ध परिणतिका त्याग करता है), और इसप्रकार जिसने ज्ञाननय
तथा क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्री सिद्ध की है, वही पुरुष इस ज्ञानमात्र निजभावमय भूमिकाका
आश्रय करनेवाला है।
ज्ञाननय और क्रियानयके ग्रहण-त्यागका स्वरूप तथा फल ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ ग्रन्थके
अन्तमें कहा है, वहाँसे जानना चाहिए।२६७।
इसप्रकार जो पुरुष इस भूमिकाका आश्रय लेता है, वही अनन्त चतुष्टयमय आत्माको प्राप्त
करता है — इस अर्थका काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [तस्य एव ] (पूर्वोक्त प्रकारसे जो पुरुष इस भूमिकाका आश्रय लेता है)
उसीके, [चित्-पिण्ड-चण्डिम-विलासि-विकास-हासः ] चैतन्यपिंडके निरर्गल विलसित
विकासरूप जिसका खिलना है (अर्थात् चैतन्यपुंजका अत्यन्त विकास होना ही जिसका खिलना
है), [शुद्ध-प्रकाश-भर-निर्भर-सुप्रभातः ] शुद्ध प्रकाशकी अतिशयताके कारण जो सुप्रभातके
समान है, [आनन्द-सुस्थित-सदा-अस्खलित-एक-रूपः ] आनन्दमें सुस्थित ऐसा जिसका सदा
अस्खलित एक रूप है [च ] और [अचल-अर्चिः ] जिसकी ज्योति अचल है ऐसा [अयम् आत्मा
उदयति ] यह आत्मा उदयको प्राप्त होता है
।