शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयीति ।
र्नित्योदयः परमयं स्फु रतु स्वभावः ।।२६९।।
सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखण्डयमानः ।
मेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोऽस्मि ।।२७०।।
भावार्थ : — यहाँ ‘चित्पिंड’ इत्यादि विशेषणसे अनन्त दर्शनका प्रगट होना, ‘शुद्धप्रकाश’ इत्यादि विशेषणसे अनन्त ज्ञानका प्रगट होना, ‘आनन्दसुस्थित’ इत्यादि विशेषणसे अनन्त सुखका प्रगट होना और ‘अचलार्चि’ विशेषणसे अनन्त वीर्यका प्रगट होना बताया है। पूर्वोक्त भूमिका आश्रय लेनेसे ही ऐसे आत्माका उदय होता है।२६८।
श्लोकार्थ : — [स्याद्वाद-दीपित-लसत्-महसि ] स्याद्वाद द्वारा प्रदीप्त किया गया जगमगाहट करता जिसका तेज है और [शुद्ध-स्वभाव-महिमनि ] जिसमें शुद्धस्वभावरूप महिमा है ऐसा [प्रकाशे उदिते मयि इति ] यह प्रकाश (ज्ञानप्रकाश) जहाँ मुझमें उदयको प्राप्त हुआ है, वहाँ [बन्ध-मोक्ष-पथ-पातिभिः अन्य-भावैः किं ] बंध-मोक्षके मार्गमें पड़नेवाले अन्य भावोंसे मुझे क्या प्रयोजन है ? [नित्य-उदयः परम् अयं स्वभावः स्फु रतु ] मुझे तो मेरा नित्य उदित रहनेवाला केवल यह (अनन्तचतुष्टयरूप) स्वभाव ही स्फु रायमान हो
भावार्थ : — स्याद्वादसे यथार्थ आत्मज्ञान होनेके बाद उसका फल पूर्ण आत्माका प्रगट होना है। इसलिये मोक्षका इच्छुक पुरुष यही प्रार्थना करता है कि — मेरा पूर्णस्वभाव आत्मा मुझे प्रगट हो; बन्धमोक्षमार्गमें पड़नेवाले अन्य भावोंसे मुझे क्या काम है ?।२६९।
‘यद्यपि नयोंके द्वारा आत्मा साधित होता है तथापि यदि नयों पर ही दृष्टि रहे तो नयोंमें तो परस्पर विरोध भी है, इसलिये मैं नयोंका विरोध मिटाकर आत्माका अनुभव करता हूँ’ — इस अर्थका काव्य कहते हैं।