न द्रव्येण खण्डयामि, न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि;
सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रो भावोऽस्मि ।
(शालिनी)
योऽयं भावो ज्ञानमात्रोऽहमस्मि
ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रः स नैव ।
ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानकल्लोलवल्गन्
ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्रः ।।२७१।।
१निराकृत = बहिष्कृत; दूर; रद-बातल; नाकबूल।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
परिशिष्ट
६२१
शक्तियोंका समुदायमय यह आत्मा [नय-ईक्षण-खण्डयमानः ] नयोंकी दृष्टिसे खण्ड-खण्डरूप
किये जाने पर [सद्यः ] तत्काल [प्रणश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [तस्मात् ] इसलिये मैं ऐसा
अनुभव करता हूँ कि — [अनिराकृत-खण्डम् अखण्डम् ] जिसमेंसे खण्डोंको १निराकृत नहीं किया
गया है तथापि जो अखण्ड है, [एकम् ] एक है, [एकान्त-शान्तम् ] एकान्त शांत है (अर्थात् जिसमें
कर्मोदयका लेशमात्र भी नहीं है ऐसा अत्यन्त शांत भावमय है) और [अचलम् ] अचल है (अर्थात्
कर्मोदयसे चलायमान च्युत नहीं होता) ऐसा [चिद् महः अहम् अस्मि ] चैतन्यमात्र तेज मैं हूँ।
भावार्थ : — आत्मामें अनेक शक्तियाँ हैं और एक एक शक्तिका ग्राहक एक एक नय
है; इसलिये यदि नयोंकी एकान्त दृष्टिसे देखा जाये तो आत्माका खण्ड-खण्ड होकर उसका नाश
हो जाये। ऐसा होनेसे स्याद्वादी, नयोंका विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तुको अनेकशक्तिसमूहरूप,
सामान्यविशेषरूप, सर्वशक्तिमय एकज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है, इसमें
विरोध नहीं है।२७०।
अब, ज्ञानी अखण्ड आत्माका ऐसा अनुभव करता है, इसप्रकार आचार्यदेव गद्यमें कहते हैं : —
(ज्ञानी शुद्धनयका आलम्बन लेकर ऐसा अनुभव करता है कि – ) मैं अपनेको अर्थात् मेरे
शुद्धात्मस्वरूपको न तो द्रव्यसे खण्डित करता हूँ, न क्षेत्रसे खण्डित करता हूँ, न कालसे खण्डित
करता हूँ और न भावसे खण्डित करता हूँ; सुविशुद्ध एक ज्ञानमात्र भाव हूँ।
भावार्थ : — यदि शुद्धनयसे देखा जाये तो शुद्ध चैतन्यमात्र भावमें द्रव्य – क्षेत्र – काल –
भावसे कुछ भी भेद दिखाई नहीं देता। इसलिये ज्ञानी अभेदज्ञानस्वरूप अनुभवमें भेद नहीं करता।
ज्ञानमात्र भाव स्वयं ही ज्ञान है, स्वयं ही अपना ज्ञेय है और स्वयं ही अपना ज्ञाता है —
इस अर्थका काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [यः अयं ज्ञानमात्रः भावः अहम् अस्मि सः ज्ञेय-ज्ञानमात्रः एव न ज्ञेयः ]