(पृथ्वी)
क्वचिल्लसति मेचकं क्वचिन्मेचकामेचकं
क्वचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम ।
तथापि न विमोहयत्यमलमेधसां तन्मनः
परस्परसुसंहतप्रकटशक्ति चक्रं स्फु रत् ।।२७२।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
जो यह ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ वह ज्ञेयोंके ज्ञानमात्र ही नहीं जानना चाहिये; [ज्ञेय-ज्ञान-कल्लोल-
वल्गन् ] (परन्तु) ज्ञेयोंके आकारसे होनेवाले ज्ञानकी कल्लोलोंके रूपमें परिणमित होता हुआ वह
[ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातृमत्-वस्तुमात्रः ज्ञेयः ] ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातामय वस्तुमात्र जानना चाहिये। (अर्थात् स्वयं
ही ज्ञान, स्वयं ही ज्ञेय और स्वयं ही ज्ञाता — इसप्रकार ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातारूप तीनों भावयुक्त वस्तुमात्र
जानना चाहिये)।
भावार्थ : — ज्ञानमात्र भाव ज्ञातृक्रियारूप होनेसे ज्ञानस्वरूप है। और वह स्वयं ही निम्न
प्रकारसे ज्ञेयरूप है। बाह्य ज्ञेय ज्ञानसे भिन्न है, वे ज्ञानमें प्रविष्ट नहीं होते; ज्ञेयोंके आकारकी झलक
ज्ञानमें पड़ने पर ज्ञान ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है, परन्तु वे ज्ञानकी ही तरंगें हैं। वे ज्ञान तरंगें ही
ज्ञानके द्वारा ज्ञात होती हैं। इसप्रकार स्वयं ही स्वतः जानने योग्य होनेसे ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञेयरूप
है। और स्वयं ही अपना जाननेवाला होनेसे ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञाता है। इसप्रकार ज्ञानमात्र भाव
ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता – इन तीनों भावोंसे युक्त सामान्यविशेषस्वरूप वस्तु है। ‘ऐसा ज्ञानमात्र भाव
मैं हूँ इसप्रकार अनुभव करनेवाला पुरुष अनुभव करता है।२७१।
आत्मा मेचक, अमेचक इत्यादि अनेक प्रकारसे दिखाई देता है तथापि यथार्थ ज्ञानी निर्मल
ज्ञानको नहीं भूलता — इस अर्थका काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — (ज्ञानी कहता है : — ) [मम तत्त्वं सहजम् एव ] मेरे तत्त्वका ऐसा
स्वभाव ही है कि [क्वचित् मेचकं लसति ] कभी तो वह (आत्मतत्त्व) मेचक (अनेकाकार,
अशुद्ध) दिखाई देता है, [क्वचित् मेचक-अमेचकं ] कभी मेचक-अमेचक (दोनोंरूप) दिखाई
देता है [पुनः क्वचित् अमेचकं ] और कभी अमेचक (-एकाकार शुद्ध) दिखाई देता है; [तथापि ]
तथापि [परस्पर-सुसंहत-प्रगट-शक्ति-चक्रं स्फु रत् तत् ] परस्पर सुसंहत (-सुमिलित, सुग्रथित)
प्रगट शक्तियोंके समूहरूपसे स्फु रायमान वह आत्मतत्त्व [अमलमेधसां मनः ] निर्मल बुद्धिवालोंके
मनको [न विमोहयति ] विमोहित ( – भ्रमित) नहीं करता
।
भावार्थ : — आत्मतत्त्व अनेक शक्तियोंवाला होनेसे किसी अवस्थामें कर्मोदयके निमित्तसे