मितः क्षणविभंगुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात्
रहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवम्
अवस्थामें शुद्धाशुद्ध अनुभवमें आता है; तथापि यथार्थ ज्ञानी स्याद्वादके बलके कारण भ्रमित नहीं
होता, जैसा है वैसा ही मानता है, ज्ञानमात्रसे च्युत नहीं होता
एकताको धारण करता है, [इतः क्षणविभंगुरम् ] एक ओरसे देखने पर क्षणभंगुर है और
[इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम् ] एक ओरसे देखने पर सदा उसका उदय होनेसे ध्रुव है,
[इतः परम-विस्तृतम् ] एक ओरसे देखने पर परम विस्तृत है और [इतः निजैः प्रदेशैः
धृतम् ] एक ओरसे देखने पर अपने प्रदेशोंसे ही धारण कर रखा हुआ है
सहभावी गुणदृष्टिसे देखने पर ध्रुव; ज्ञानकी अपेक्षावाली सर्वगत दृष्टिसे देखने पर परम
विस्तारको प्राप्त दिखाई देता है और प्रदेशोंकी अपेक्षावाली दृष्टिसे देखने पर अपने प्रदेशोंमें
ही व्याप्त दिखाई देता है
यद्यपि ज्ञानियोंको वस्तुस्वभावमें आश्चर्य नहीं होता फि र भी उन्हें कभी नहीं हुआ ऐसा अद्भुत
परमानन्द होता है, और इसलिए आश्चर्य भी होता है