मितः क्षणविभंगुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात् ।
रहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवम् ।।२७३।।
अवस्थामें शुद्धाशुद्ध अनुभवमें आता है; तथापि यथार्थ ज्ञानी स्याद्वादके बलके कारण भ्रमित नहीं
होता, जैसा है वैसा ही मानता है, ज्ञानमात्रसे च्युत नहीं होता।२७२।
आत्माका अनेकान्तस्वरूप (-अनेक धर्मस्वरूप) वैभव अद्भुत (आश्चर्यकारक) है — इस अर्थका काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अहो आत्मनः तद् इदम् सहजम् अद्भुतं वैभवम् ] अहो ! आत्माका तो यह सहज अद्भुत वैभव है कि — [इतः अनेकतां गतम् ] एक ओरसे देखने पर वह अनेकताको प्राप्त है और [इतः सदा अपि एकताम् दधत् ] एक ओरसे देखने पर सदा एकताको धारण करता है, [इतः क्षणविभंगुरम् ] एक ओरसे देखने पर क्षणभंगुर है और [इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम् ] एक ओरसे देखने पर सदा उसका उदय होनेसे ध्रुव है, [इतः परम-विस्तृतम् ] एक ओरसे देखने पर परम विस्तृत है और [इतः निजैः प्रदेशैः धृतम् ] एक ओरसे देखने पर अपने प्रदेशोंसे ही धारण कर रखा हुआ है
भावार्थ : — पर्यायदृष्टिसे देखने पर आत्मा अनेकरूप दिखाई देता है और द्रव्य- दृष्टिसे देखने पर एकरूप; क्रमभावी पर्यायदृष्टिसे देखने पर क्षणभंगुर दिखाई देता है और सहभावी गुणदृष्टिसे देखने पर ध्रुव; ज्ञानकी अपेक्षावाली सर्वगत दृष्टिसे देखने पर परम विस्तारको प्राप्त दिखाई देता है और प्रदेशोंकी अपेक्षावाली दृष्टिसे देखने पर अपने प्रदेशोंमें ही व्याप्त दिखाई देता है। ऐसा द्रव्यपर्यायात्मक अनन्तधर्मवाला वस्तुका स्वभाव है। वह (स्वभाव) अज्ञानियोंके ज्ञानमें आश्चर्य उत्पन्न करता है कि यह तो असम्भवसी बात है ! यद्यपि ज्ञानियोंको वस्तुस्वभावमें आश्चर्य नहीं होता फि र भी उन्हें कभी नहीं हुआ ऐसा अद्भुत परमानन्द होता है, और इसलिए आश्चर्य भी होता है।२७३।