(पृथ्वी)
कषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो
भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्ति रप्येकतः ।
जगत्त्रितयमेकतः स्फु रति चिच्चकास्त्येकतः
स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ।।२७४।।
(मालिनी)
जयति सहजतेजःपुंजमज्जत्त्रिलोकी-
स्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः ।
स्वरसविसरपूर्णाच्छिन्नतत्त्वोपलम्भः
प्रसभनियमितार्चिश्चिच्चमत्कार एषः ।।२७५।।
६२४
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
श्लोकार्थ : — [एकतः कषाय-कलिः स्खलति ] एक ओरसे देखने पर कषायोंका क्लेश
दिखाई देता है और [एकतः शान्तिः अस्ति ] एक ओरसे देखने पर शांति (कषायोंके अभावरूप
शांतभाव) है; [एकतः भव-उपहतिः ] एक ओरसे देखने पर भवकी (-सांसारिक) पीड़ा दिखाई देती
है और [एकतः मुक्तिः अपि स्पृशति ] एक ओरसे देखने पर (संसारके अभावरूप) मुक्ति भी स्पर्श
करती है; [एकतः त्रितयम् जगत् स्फु रति ] एक ओरसे देखने पर तीनों लोक स्फु रायमान होते हैं ( –
प्रकाशित होता है, दिखाई देता है) और [एकतः चित् चकास्ति ] एक ओरसे देखने पर केवल एक
चैतन्य ही शोभित होता है। [आत्मनः अद्भुतात् अद्भुतः स्वभाव-महिमा विजयते ] (ऐसी) आत्माकी
अद्भुतसे भी अद्भुत स्वभावमहिमा जयवन्त वर्तती है ( – अर्थात् किसीसे बाधित नहीं होती)।
भावार्थ : — यहाँ भी २७३वें श्लोकके भावार्थानुसार ही जानना चाहिये। आत्माका
अनेकांतमय स्वभाव सुनकर अन्यवादियोंको भारी आश्चर्य होता है। उन्हें इस बातमें विरोध भासित
होता है। वे ऐसे अनेकान्तमय स्वभावकी बातको अपने चित्तमें न तो समाविष्ट कर सकते हैं और
न सहन ही कर सकते हैं। यदि कदाचित् उन्हें श्रद्धा हो तो प्रथम अवस्थामें उन्हें भारी अद्भुतता
मालूम होती है कि — ‘अहो ! यह जिनवचन महा उपकारी हैं, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको बतानेवाले
हैं; मैंने अनादिकाल ऐसे यथार्थ स्वरूपके ज्ञान बिना ही खो दिया (गँवा दिया) !’ — वे इसप्रकार
आश्चर्यपूर्वक श्रद्धान करते हैं।२७४।
अब, टीकाकार आचार्यदेव अन्तिम मङ्गलके अर्थ इस चित्चमत्कारको ही सर्वोत्कृष्ट कहते हैं।
श्लोकार्थ : — [सहज-तेजःपुञ्ज-मज्जत्-त्रिलोकी-स्खलत्-अखिल-विकल्पः अपि
एकः एव स्वरूपः ] सहज (-अपने स्वभावरूप) तेजःपुञ्जमें त्रिलोकके पदार्थ मग्न हो जाते हैं,