न्यनवरतनिमग्नं धारयद् ध्वस्तमोहम् ।
ज्ज्वलतु विमलपूर्णं निःसपत्नस्वभावम् ।।२७६।।
केवलज्ञानमें सर्व पदार्थ झलकते हैं, इसलिये जो अनेक ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है तथापि जो
चैतन्यरूप ज्ञानाकारकी दृष्टिमें एकस्वरूप ही है), [स्व-रस-विसर-पूर्ण-अच्छिन्न-तत्त्व-
उपलम्भः ] जिसमें निज रसके विस्तारसे पूर्ण अच्छिन्न तत्त्वोपलब्धि है (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मका
अभाव हो जानेसे जिसमें स्वरूपानुभवनका अभाव नहीं होता) [प्रसभ-नियमित-अर्चिः ] और
जिसकी ज्योति अत्यन्त नियमित है (अर्थात् जो अनन्तवीर्यसे निष्कम्प रहता है) [एषः चित्-
चमत्कारः जयति ] ऐसा यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) चैतन्यचमत्कार जयवन्त वर्तता है
(यहाँ ‘चैतन्यचमत्कार जयवन्त वर्तता है’ इस कथनमें जो चैतन्यचमत्कारका सर्वोत्कृष्टतया होना बताया है, वही मङ्गल है)।२७५।
अब, इस श्लोकमें टीकाकार आचार्यदेव पूर्वोक्त आत्माको आशीर्वाद देते हैं और साथ ही अपना नाम भी प्रगट करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अविचलित-चिदात्मनि आत्मनि आत्मानम् आत्मना अनवरत-निमग्नं धारयत् ] जो अचल चेतनास्वरूप आत्मामें आत्माको अपने आप ही निरन्तर निमग्न रखती है (अर्थात् प्राप्त किये गये स्वभावको कभी नहीं छोड़ती), [ध्वस्त-मोहम् ] जिसने मोहका (अज्ञानांधकारका) नाश किया है, [निःसपत्नस्वभावम् ] जिसका स्वभाव निःसपत्न ( – प्रतिपक्षी कर्मोंसे रहित) है, [विमल-पूर्णं ] जो निर्मल है और पूर्ण है; ऐसी [एतत् उदितम् अमृतचन्द्र- ज्योतिः ] यह उदयको प्राप्त अमृतचन्द्रज्योति (-अमृतमय चन्द्रमाके समान ज्योति, ज्ञान, आत्मा) [समन्तात् ज्वलतु ] सर्वतः जाज्वल्यमान रहो।
भावार्थ : — जिसका न तो मरण होता है और न जिससे दूसरेका मरण होता है वह अमृत है; और जो अत्यन्त स्वादिष्ट (-मीठा) होता है उसे लोग रूढ़िसे अमृत कहते हैं। यहाँ ज्ञानको — आत्माको — अमृतचन्द्रज्योति ( — अमृतमय चन्द्रमाके समान ज्योति) कहा है, जो कि लुप्तोपमालंकार है; क्योंकि ‘अमृतचन्द्रवत् ज्योतिः’ का समास करने पर ‘वत्’ का लोप होकर ‘अमृतचन्द्रज्योतिः’ होता है।