(शार्दूलविक्रीडित)
यस्माद् व्दैतमभूत्पुरा स्वपरयोर्भूतं यतोऽत्रान्तरं
रागद्वेषपरिग्रहे सति यतो जातं क्रियाकारकैः ।
भुंजाना च यतोऽनुभूतिरखिलं खिन्ना क्रियायाः फलं
तद्विज्ञानघनौघमग्नमधुना किंचिन्न किंचित्किल ।।२७७।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(यदि ‘वत्’ न रखकर ‘अमृतचन्द्ररूप ज्योति’ अर्थ किया जाय तो भेदरूपक अलङ्कार
होता है। और ‘अमृतचन्द्रज्योति’ ही आत्माका नाम कहा जाय तो अभेदरूपक अलङ्कार होता है।)
आत्माको अमृतमय चन्द्रमाके समान कहने पर भी, यहाँ कहे गये विशेषणोंके द्वारा
आत्माका चन्द्रमाके साथ व्यतिरेक भी है; क्योंकि ‘ध्वस्तमोह’ विशेषण अज्ञानांधकारका दूर होना
बतलाता है, ‘विमलपूर्ण’ विशेषण लांछनरहितता तथा पूर्णता बतलाता है, ‘निःसपत्नस्वभाव’
विशेषण राहुबिम्बसे तथा बादल आदिसे आच्छादित न होना बतलाता है, और ‘समन्तात् ज्वलतु’
सर्व क्षेत्र और सर्व कालमें प्रकाश करना बतलाता है; चन्द्रमा ऐसा नहीं है।
इस श्लोकमें टीकाकार आचार्यदेवने अपना ‘अमृतचन्द्र’ नाम भी बताया है। समास
बदलकर अर्थ करनेसे ‘अमृतचन्द्र’ के और ‘अमृतचन्द्रज्योति’के अनेक अर्थ होते हैं जो कि
यथासंभव जानने चाहिये।२७६।
अब, श्रीमान् अमृतचन्द्राचार्यदेव दो श्लोक कहकर इस समयसारग्रन्थकी ‘आत्मख्याति’
नामक टीका समाप्त करते हैं।
‘अज्ञानदशामें आत्मा स्वरूपको भूलकर रागद्वेषमें प्रवृत्त होता था, परद्रव्यकी क्रियाका
कर्ता बनता था, क्रियाके फलका भोक्ता होता था, — इत्यादि भाव करता था; किन्तु अब ज्ञानदशामें
वे भाव कुछ भी नहीं हैं ऐसा अनुभव किया जाता है। — इसी अर्थका प्रथम श्लोक कहते
हैं : —
श्लोकार्थ : — [यस्मात् ] जिससे (अर्थात् जिस परसंयोगरूप बन्धपर्यायजनित अज्ञानसे)
[पूरा ] प्रथम [स्व-परयोः द्वैतम् अभूत् ] अपना और परका द्वैत हुआ (अर्थात् स्वपरके
मिश्रितपनारूप भाव हुआ), [यतः अत्र अन्तरं भूतं ] द्वैतभाव होने पर जिससे स्वरूपमें अन्तर पड़
गया (अर्थात् बन्धपर्याय ही निजरूप ज्ञात हुई), [यतः राग-द्वेष-परिग्रहे सति ] स्वरूपमें अन्तर
पड़ने पर जिससे रागद्वेषका ग्रहण हुआ, [क्रिया-कारकैः जातं ] रागद्वेषका ग्रहण होने पर जिससे
क्रियाके कारक उत्पन्न हुए (अर्थात् क्रिया और कर्त्ता-कर्मादि कारकोंका भेद पड़ गया), [यतः
च अनुभूतिः क्रियायाः अखिलं फलं भुञ्जाना खिन्ना ] कारक उत्पन्न होने पर जिससे अनुभूति