Samaysar (Hindi). Kalash: 278.

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(उपजाति)
स्वशक्ति संसूचितवस्तुतत्त्वै-
र्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः
स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति
कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः
।।२७८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
परिशिष्ट
६२७
क्रियाके समस्त फलको भोगती हुई खिन्न हो गई, [तत् विज्ञान-घन-ओघ-मग्नम् ] वह अज्ञान
अब विज्ञानघनके समूहमें मग्न हुआ (अर्थात् ज्ञानरूपमें परिणमित हुआ) [अधुना किल किञ्चित्
न किञ्चित् ]
इसलिए अब वह सब वास्तवमें कुछ भी नहीं है
भावार्थ :परसंयोगसे ज्ञान ही अज्ञानरूप परिणमित हुआ था, अज्ञान कहीं पृथक् वस्तु
नहीं थी; इसलिए अब वह जहाँ ज्ञानरूप परिणमित हुआ कि वहाँ वह (अज्ञान) कुछ भी नहीं
रहा
अज्ञानके निमित्तसे राग, द्वेष, क्रियाका कर्तृत्व, क्रियाके फलका (सुखदुःखका) भोक्तृत्व
आदि भाव होते थे वे भी विलीन हो गये हैं; एकमात्र ज्ञान ही रह गया है इसलिये अब आत्मा
स्व-परके त्रिकालवर्ती भावोंको ज्ञाताद्रष्टा होकर जानते-देखते ही रहो।२७७।
‘पूर्वोक्त प्रकारसे ज्ञानदशामें परकी क्रिया अपनी भासित न होनेसे, इस समयसारकी
व्याख्या करने की क्रिया भी मेरी नहीं है, शब्दोंकी है’इस अर्थका, समयसारकी व्याख्या
करनेकी अभिमानरूप कषायके त्यागका सूचक श्लोक अब कहते हैं :
श्लोकार्थ :[स्व-शक्ति-संसूचित-वस्तु-तत्त्वैः शब्दैः ] जिनने अपनी शक्तिसे वस्तुके
तत्त्व (-यथार्थ स्वरूप) को भलीभाँति कहा है ऐसे शब्दोंने [इयं समयस्य व्याख्या ] इस समयकी
व्याख्या (आत्मवस्तुका व्याख्यान अथवा समयप्राभृतशास्त्रकी टीका) [कृता ] की है; [स्वरूप-
गुप्तस्य अमृतचन्द्रसूरेः ]
स्वरूपगुप्त (
अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमें गुप्त) अमृतचन्द्रसूरिका (इसमें)
[किञ्चित् एव कर्तव्यम् न अस्ति ] कुछ भी कर्तव्य नहीं है
भावार्थ :शब्द तो पुद्गल हैं वे पुरुषके निमित्तसे वर्ण-पद-वाक्यरूपसे परिणमित
होते हैं; इसलिये उनमें वस्तुस्वरूपको कहनेकी शक्ति स्वयमेव है, क्योंकि शब्दका और अर्थका
वाच्यवाचक सम्बन्ध है
इसप्रकार द्रव्यश्रुतकी रचना शब्दोंने की है यही बात यथार्थ है आत्मा
तो अमूर्तिक है, ज्ञानस्वरूप है; इसलिये वह मूर्तिक पुद्गलकी रचना कैसे कर सकता है ? इसलिये
आचार्यदेवने कहा है कि ‘इस समयप्राभृतकी टीका शब्दोंने की है, मैं तो स्वरूपमें लीन हूँ, उसमें
(
टीका करनेमें) मेरा कोई कर्तव्य नहीं है’ यह कथन आचार्यदेवकी निरभिमानताको भी सूचित
करता है अब यदि निमित्त-नैमित्तिक व्यवहारसे ऐसा ही कहा जाता है कि अमुक पुरुषने यह