(उपजाति) स्वशक्ति संसूचितवस्तुतत्त्वै- र्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः । स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ।।२७८।।
अब विज्ञानघनके समूहमें मग्न हुआ (अर्थात् ज्ञानरूपमें परिणमित हुआ) [अधुना किल किञ्चित्
न किञ्चित् ] इसलिए अब वह सब वास्तवमें कुछ भी नहीं है।
भावार्थ : — परसंयोगसे ज्ञान ही अज्ञानरूप परिणमित हुआ था, अज्ञान कहीं पृथक् वस्तु नहीं थी; इसलिए अब वह जहाँ ज्ञानरूप परिणमित हुआ कि वहाँ वह (अज्ञान) कुछ भी नहीं रहा। अज्ञानके निमित्तसे राग, द्वेष, क्रियाका कर्तृत्व, क्रियाके फलका ( – सुखदुःखका) भोक्तृत्व आदि भाव होते थे वे भी विलीन हो गये हैं; एकमात्र ज्ञान ही रह गया है। इसलिये अब आत्मा स्व-परके त्रिकालवर्ती भावोंको ज्ञाताद्रष्टा होकर जानते-देखते ही रहो।२७७।
‘पूर्वोक्त प्रकारसे ज्ञानदशामें परकी क्रिया अपनी भासित न होनेसे, इस समयसारकी व्याख्या करने की क्रिया भी मेरी नहीं है, शब्दोंकी है’ — इस अर्थका, समयसारकी व्याख्या करनेकी अभिमानरूप कषायके त्यागका सूचक श्लोक अब कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [स्व-शक्ति-संसूचित-वस्तु-तत्त्वैः शब्दैः ] जिनने अपनी शक्तिसे वस्तुके तत्त्व (-यथार्थ स्वरूप) को भलीभाँति कहा है ऐसे शब्दोंने [इयं समयस्य व्याख्या ] इस समयकी व्याख्या (आत्मवस्तुका व्याख्यान अथवा समयप्राभृतशास्त्रकी टीका) [कृता ] की है; [स्वरूप- गुप्तस्य अमृतचन्द्रसूरेः ] स्वरूपगुप्त ( – अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमें गुप्त) अमृतचन्द्रसूरिका (इसमें) [किञ्चित् एव कर्तव्यम् न अस्ति ] कुछ भी कर्तव्य नहीं है।
भावार्थ : — शब्द तो पुद्गल हैं। वे पुरुषके निमित्तसे वर्ण-पद-वाक्यरूपसे परिणमित होते हैं; इसलिये उनमें वस्तुस्वरूपको कहनेकी शक्ति स्वयमेव है, क्योंकि शब्दका और अर्थका वाच्यवाचक सम्बन्ध है। इसप्रकार द्रव्यश्रुतकी रचना शब्दोंने की है यही बात यथार्थ है। आत्मा तो अमूर्तिक है, ज्ञानस्वरूप है; इसलिये वह मूर्तिक पुद्गलकी रचना कैसे कर सकता है ? इसलिये आचार्यदेवने कहा है कि ‘इस समयप्राभृतकी टीका शब्दोंने की है, मैं तो स्वरूपमें लीन हूँ, उसमें ( – टीका करनेमें) मेरा कोई कर्तव्य नहीं है।’ यह कथन आचार्यदेवकी निरभिमानताको भी सूचित करता है। अब यदि निमित्त-नैमित्तिक व्यवहारसे ऐसा ही कहा जाता है कि अमुक पुरुषने यह