इति श्रीमदमृतचन्द्राचार्यकृता समयसारव्याख्या आत्मख्यातिः समाप्ता ।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
अमुक कार्य किया है। इस न्यायसे यह आत्मख्याति नामक टीका भी अमृतचन्द्राचार्यकृत है ही।
इसलिये इसके पढ़ने – सुननेवालोंको उनका उपकार मानना भी युक्त है; क्योंकि इसके पढ़ने – सुननेसे
पारमार्थिक आत्माका स्वरूप ज्ञात होता है, उसका श्रद्धान तथा आचरण होता है, मिथ्या ज्ञान,
श्रद्धान तथा आचरण दूर होता है और परम्परासे मोक्षकी प्राप्ति होती है। मुमुक्षुओंको इसका निरन्तर
अभ्यास करना चाहिये।२७८।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी)
श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीका समाप्त हुई।
(अब, पंडित जयचन्द्रजी भाषाटीका पूर्ण करते हुये कहते हैं : — )
(सवैया)
कुन्दकुन्दमुनि कियो गाथाबंध प्राकृत है प्राभृतसमय शुद्ध आतम दिखावनूं,
सुधाचन्द्रसूरि करी संस्कृत टीकावर आत्मख्याति नाम यथातथ्य भावनूं;
देशकी वचनिकामें लिखि जयचन्द्र पढ़ै संक्षेप अर्थ अल्पबुद्धिकूं पावनूं,
पढ़ो सुनो मन लाय शुद्ध आतमा लखाय ज्ञानरूप गहौ चिदानन्द दरसावनूं।।१।।
(दोहा)
समयसार अविकारका, वर्णन कर्ण सुनन्त।
द्रव्य-भाव-नोकर्म तजि, आतमतत्त्व लखन्त।।२।।
इसप्रकार इस समयप्राभृत (अथवा समयसार) नामक शास्त्रकी आत्मख्याति नामकी
संस्कृत टीकाकी देशभाषामय वचनिका लिखी है। इसमें संस्कृत टीकाका अर्थ लिखा है
और अति संक्षिप्त भावार्थ लिखा है, विस्तार नहीं किया है। संस्कृत टीकामें न्यायसे सिद्ध
हुए प्रयोग हैं। यदि उनका विस्तार किया जाय तो अनुमानप्रमाणके पांच अंगपूर्वक — प्रतिज्ञा,
हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमनपूर्वक — स्पष्टतासे व्याख्या करने पर ग्रन्थ बहुत बढ़ जाय;
इसलिये आयु, बुद्धि, बल और स्थिरताकी अल्पताके कारण, जितना बन सका है उतना,
संक्षेपसे प्रयोजनमात्र लिखा है। इसे पढ़कर भव्यजन पदार्थको समझना। किसी अर्थमें
हीनाधिकता हो तो बुद्धिमानजन मूल ग्रन्थानुसार जैसा हो वैसा यथार्थ समझ लेना। इस
ग्रन्थके गुरुसम्प्रदायका ( – गुरूपरम्परागत उपदेशका) व्युच्छेद हो गया है, इसलिये जितना हो
सके उतना – यथाशक्ति अभ्यास हो सकता है। तथापि जो स्याद्वादमय जिनमतकी आज्ञा मानते
हैं, उन्हें विपरीत श्रद्धान नहीं होता। यदि कहीं अर्थको अन्यथा समझना भी हो जाय तो