(मालिनी)
चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं
कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे ।
अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं
प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ।।८।।
अथैवमेकत्वेन द्योतमानस्यात्मनोऽधिगमोपायाः प्रमाणनयनिक्षेपाः ये ते खल्वभूतार्था-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
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तक इसप्रकार जीव तत्त्वकी जानकारी जीवको नहीं है तब तक वह व्यवहारदृष्टि है, भिन्न भिन्न
नव तत्त्वोंको मानता है । जीवपुद्गलकी बन्धपर्यायरूप दृष्टिसे यह पदार्थ भिन्न भिन्न दिखाई देते
हैं; किन्तु जब शुद्धनयसे जीव-पुद्गलका निजस्वरूप भिन्न भिन्न देखा जाये तब वे पुण्य, पापादि
सात तत्त्व कुछ भी वस्तु नहीं हैं; वे निमित्त-नैमित्तिक भावसे हुए थे, इसलिए जब वह निमित्त-
नैमित्तिकभाव मिट गया तब जीव-पुद्गल भिन्न भिन्न होनेसे अन्य कोई वस्तु (पदार्थ) सिद्ध नहीं
हो सकती । वस्तु तो द्रव्य है, और द्रव्यका निजभाव द्रव्यके साथ ही रहता है तथा निमित्त-
नैमित्तिकभावका तो अभाव ही होता है, इसलिये शुद्धनयसे जीवको जाननेसे ही सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति
हो सकती है । जब तक भिन्न भिन्न नव पदार्थोंको जाने, और शुद्धनयसे आत्माको न जाने तब
तक पर्यायबुद्धि है ।।१३।।
यहाँ, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार [चिरम् नव-तत्त्व-च्छन्नम् इदम् आत्मज्योतिः ] नव
तत्त्वोंमें बहुत समयसे छिपी हुई यह आत्मज्योति [उन्नीयमानं ] शुद्धनयसे बाहर निकालकर प्रगट
की गई है, [वर्णमाला-कलापे निमग्नं कनकम् इव ] जैसे वर्णोके समूहमें छिपे हुए एकाकार
स्वर्णको बाहर निकालते हैं । [अथ ] इसलिए अब हे भव्य जीवों ! [सततविविक्तं ] इसे सदा अन्य
द्रव्योंसे तथा उनसे होनेवाले नैमित्तिक भावोंसे भिन्न, [एकरूपं ] एकरूप [दृश्यताम् ] देखो ।
[प्रतिपदम् उद्योतमानम् ] यह (ज्योति), पद पद पर अर्थात् प्रत्येक पर्यायमें एकरूप
चित्चमत्कारमात्र उद्योतमान है ।
भावार्थ : — यह आत्मा सर्व अवस्थाओंमें विविधरूपसे दिखाई देता था, उसे शुद्धनयने
एक चैतन्य-चमत्कारमात्र दिखाया है; इसलिये अब उसे सदा एकाकार ही अनुभव करो,
पर्यायबुद्धिका एकान्त मत रखो — ऐसा श्री गुरुओंका उपदेश है ।८।
टीका : — अब, जैसे नवतत्त्वोंमें एक जीवको ही जानना भूतार्थ कहा है, उसीप्रकार,
एकरूपसे प्रकाशमान आत्माके अधिगमके उपाय जो प्रमाण, नय, निक्षेप हैं वे भी निश्चयसे