क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम् ।
न्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ।।९।।
करनेपर वे चारों ही अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । इसप्रकार इन प्रमाण-नय-निक्षेपोंमें भूतार्थरूपसे
भावार्थ : — इन प्रमाण, नय, निक्षेपोंका विस्तारसे कथन तद्विषयक ग्रन्थोंसे जानना चाहिये; उनसे द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुकी सिद्धि होती है । वे साधक अवस्थामें तो सत्यार्थ ही हैं, क्योंकि वे ज्ञानके ही विशेष हैं । उनके बिना वस्तुको चाहे जैसा साधा जाये तो विपर्यय हो जाता है । अवस्थानुसार व्यवहारके अभावकी तीन रीतियाँ हैं : प्रथम अवस्थामें प्रमाणादिसे यथार्थ वस्तुको जानकर ज्ञान-श्रद्धानकी सिद्धि करना; ज्ञान-श्रद्धानके सिद्ध होनेपर श्रद्धानके लिए प्रमाणादिकी कोई आवश्यकता नहीं है । किन्तु अब यह दूसरी अवस्थामें प्रमाणादिके आलम्बनसे विशेष ज्ञान होता है और राग-द्वेष-मोहकर्मका सर्वथा अभावरूप यथाख्यात चारित्र प्रगट होता है; उससे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है । केवलज्ञान होनेके पश्चात् प्रमाणादिका आलम्बन नहीं रहता । तत्पश्चात् तीसरी साक्षात् सिद्ध अवस्था है, वहाँ भी कोई आलम्बन नहीं है । इसप्रकार सिद्ध अवस्थामें प्रमाण-नय-निक्षेपका अभाव ही है ।
श्लोकार्थ : — आचार्य शुद्धनयका अनुभव करके कहते हैं कि — [अस्मिन् सर्वंक षे धाम्नि अनुभवम् उपयाते ] इन समस्त भेदोंको गौण करनेवाला जो शुद्धनयके विषयभूत चैतन्य-चमत्कारमात्र तेजःपुञ्ज आत्मा है, उसका अनुभव होनेपर [नयश्रीः न उदयति ] नयोंकी लक्ष्मी उदित नहीं होती, [प्रमाणं अस्तम् एति ] प्रमाण अस्त हो जाता है [अपि च ] और [निक्षेपचक्रम् क्वचित् याति, न विद्मः ] निक्षेपोंका समूह कहां चाला जाता है सो