Samaysar (Hindi). Kalash: 9.

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स्वस्वलक्षणवैलक्षण्येनानुभूयमानतायां भूतार्थम्, अथ च निर्विलक्षणस्वलक्षणैकजीवस्वभावस्यानुभूय-
मानतायामभूतार्थम अथैवममीषु प्रमाणनयनिक्षेपेषु भूतार्थत्वेनैको जीव एव प्रद्योतते
(मालिनी)
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं
क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम
किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंक षेऽस्मि-
न्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव
।।९।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
३५
निक्षेप हे वर्तमान पर्यायसे वस्तुको वर्तमानमें कहना सो भाव निक्षेप है इन चारों निक्षेपोंका
अपने-अपने लक्षणभेदसे (विलक्षणरूपसेभिन्न भिन्न रूपसे) अनुभव किये जानेपर वे भूतार्थ
हैं, सत्यार्थ हैं; और भिन्न लक्षणसे रहित एक अपने चैतन्यलक्षणरूप जीवस्वभावका अनुभव
करनेपर वे चारों ही अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं
इसप्रकार इन प्रमाण-नय-निक्षेपोंमें भूतार्थरूपसे
एक जीव ही प्रकाशमान है
भावार्थ :इन प्रमाण, नय, निक्षेपोंका विस्तारसे कथन तद्विषयक ग्रन्थोंसे जानना
चाहिये; उनसे द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुकी सिद्धि होती है वे साधक अवस्थामें तो सत्यार्थ
ही हैं, क्योंकि वे ज्ञानके ही विशेष हैं उनके बिना वस्तुको चाहे जैसा साधा जाये तो
विपर्यय हो जाता है अवस्थानुसार व्यवहारके अभावकी तीन रीतियाँ हैं : प्रथम अवस्थामें
प्रमाणादिसे यथार्थ वस्तुको जानकर ज्ञान-श्रद्धानकी सिद्धि करना; ज्ञान-श्रद्धानके सिद्ध होनेपर
श्रद्धानके लिए प्रमाणादिकी कोई आवश्यकता नहीं है
किन्तु अब यह दूसरी अवस्थामें
प्रमाणादिके आलम्बनसे विशेष ज्ञान होता है और राग-द्वेष-मोहकर्मका सर्वथा अभावरूप
यथाख्यात चारित्र प्रगट होता है; उससे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है
केवलज्ञान होनेके पश्चात्
प्रमाणादिका आलम्बन नहीं रहता तत्पश्चात् तीसरी साक्षात् सिद्ध अवस्था है, वहाँ भी कोई
आलम्बन नहीं है इसप्रकार सिद्ध अवस्थामें प्रमाण-नय-निक्षेपका अभाव ही है
इस अर्थका कलशरूप श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :आचार्य शुद्धनयका अनुभव करके कहते हैं कि[अस्मिन् सर्वंक षे
धाम्नि अनुभवम् उपयाते ] इन समस्त भेदोंको गौण करनेवाला जो शुद्धनयके विषयभूत
चैतन्य-चमत्कारमात्र तेजःपुञ्ज आत्मा है, उसका अनुभव होनेपर [नयश्रीः न उदयति ]
नयोंकी लक्ष्मी उदित नहीं होती, [प्रमाणं अस्तम् एति ] प्रमाण अस्त हो जाता है [अपि
च ]
और [निक्षेपचक्रम् क्वचित् याति, न विद्मः ] निक्षेपोंका समूह कहां चाला जाता है सो