(उपजाति) आत्मस्वभावं परभावभिन्न- मापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम् । विलीनसंक ल्पविक ल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ।।१०।।
भावार्थ : — भेदको अत्यन्त गौण करके कहा है कि — प्रमाण, नयादि भेदकी तो बात ही क्या ? शुद्ध अनुभवके होनेपर द्वैत ही भासित नहीं होता, एकाकार चिन्मात्र ही दिखाई देता है ।
यहाँ विज्ञानाद्वैतवादी तथा वेदान्ती कहते हैं कि — अन्तमें परमार्थरूप तो अद्वैतका ही अनुभव हुआ । यही हमारा मत है; इसमें आपने विशेष क्या कहा ? इसका उत्तर : — तुम्हारे मतमें सर्वथा अद्वैत माना जाता है । यदि सर्वथा अद्वैत माना जाये तो बाह्य वस्तुका अभाव ही हो जाये, और ऐसा अभाव तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है । हमारे मतमें नयविवक्षा है जो कि बाह्य वस्तुका लोप नहीं करती । जब शुद्ध अनुभवसे विक ल्प मिट जाता है तब आत्मा परमानन्दको प्राप्त होता है, इसलिये अनुभव करानेके लिए यह कहा है कि ‘‘शुद्ध अनुभवमें द्वैत भासित नहीं होता’’ । यदि बाह्य वस्तुका लोप किया जाये तो आत्माका भी लोप हो जायेगा और शून्यवादका प्रसङ्ग आयेगा । इसलिए जैसा तुम कहते हो उसप्रकारसे वस्तुस्वरूपकी सिद्धि नहीं हो सकती, और वस्तुस्वरूपकी यथार्थ श्रद्धाके बिना जो शुद्ध अनुभव किया जाता है वह भी मिथ्यारूप है; शून्यका प्रसङ्ग होनेसे तुम्हारा अनुभव भी आकाश-कुसुमके अनुभवके समान है ।९।
श्लोकार्थ : — [शुद्धनयः आत्मस्वभावं प्रकाशयन् अभ्युदेति ] शुद्धनय आत्मस्वभावको प्रगट करता हुआ उदयरूप होता है । वह आत्मस्वभावको [परभावभिन्नम् ] परद्रव्य, परद्रव्यके भाव तथा परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने विभाव — ऐसे परभावोंसे भिन्न प्रगट करता है । और वह, [आपूर्णम् ] आत्मस्वभाव सम्पूर्णरूपसे पूर्ण है — समस्त लोकालोकका ज्ञाता है — ऐसा प्रगट करता है; (क्योंकि ज्ञानमें भेद कर्मसंयोगसे हैं, शुद्धनयमें कर्म गौण हैं ) । और वह, [आदि- अन्त-विमुक्त म् ] आत्मस्वभावको आदि-अन्तसे रहित प्रगट करता है (अर्थात् किसी आदिसे लेकर जो किसीसे उत्पन्न नहीं किया गया, और कभी भी किसीसे जिसका विनाश नही होता, ऐसे