या खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः स शुद्धनयः, सा त्वनुभूतिरात्मैव; इत्यात्मैक एव प्रद्योतते । कथं यथोदितस्यात्मनोऽनुभूतिरिति चेद्बद्ध- स्पृष्टत्वादीनामभूतार्थत्वात् । तथा हि — यथा खलु बिसिनीपत्रस्य सलिलनिमग्नस्य पारिणामिक भावको वह प्रगट करता है) । और वह, [एकम् ] आत्मस्वभावको एक — सर्व भेदभावोंसे (द्वैतभावोंसे) रहित एकाकार — प्रगट करता है, और [विलीनसंकल्पविकल्पजालं ] जिसमें समस्त संकल्प-विक ल्पके समूह विलीन हो गये हैं ऐसा प्रगट करता है । (द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्योंमें अपनी कल्पना करना सो संकल्प है, और ज्ञेयोंके भेदसे ज्ञानमें भेद ज्ञात होना सो विकल्प है ।) ऐसा शुद्धनय प्रकाशरूप होता है ।१०।
गाथार्थ : — [यः ] जो नय [आत्मानम् ] आत्माको [अबद्धस्पृष्टम् ] बन्ध रहित और परके स्पर्शसे रहित, [अनन्यकं ] अन्यत्व रहित, [नियतम् ] चलाचलता रहित, [अविशेषम् ] विशेष रहित, [असंयुक्तं ] अन्यके संयोगसे रहित — ऐसे पांच भावरूपसे [पश्यति ] देखता है [तं ] उसे, हे शिष्य ! तू [शुद्धनयं ] शुद्धनय [विजानीहि ] जान ।
टीका : — निश्चयसे अबद्ध-अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त — ऐसे आत्माकी जो अनुभूति सो शुद्धनय है, और वह अनुभूति आत्मा ही है; इसप्रकार आत्मा एक ही प्रकाशमान है । (शुद्धनय, आत्माकी अनुभूति या आत्मा सब एक ही हैं, अलग नहीं ।) यहां शिष्य पूछता है कि जैसा ऊ पर कहा है वैसे आत्माकी अनुभूति कैसे हो सकती है ? उसका समाधान यह है : — बद्धस्पृष्टत्व आदि भाव अभूतार्थ हैं, इसलिए यह अनुभूति हो सकती है । इस बातको दृष्टान्तसे प्रगट करते हैं —