जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं ।
अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ।।१४।।
यः पश्यति आत्मानम् अबद्धस्पृष्टमनन्यकं नियतम् ।
अविशेषमसंयुक्तं तं शुद्धनयं विजानीहि ।।१४।।
या खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः स शुद्धनयः,
सा त्वनुभूतिरात्मैव; इत्यात्मैक एव प्रद्योतते । कथं यथोदितस्यात्मनोऽनुभूतिरिति चेद्बद्ध-
स्पृष्टत्वादीनामभूतार्थत्वात् । तथा हि — यथा खलु बिसिनीपत्रस्य सलिलनिमग्नस्य
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
३७
पारिणामिक भावको वह प्रगट करता है) । और वह, [एकम् ] आत्मस्वभावको एक — सर्व
भेदभावोंसे (द्वैतभावोंसे) रहित एकाकार — प्रगट करता है, और [विलीनसंकल्पविकल्पजालं ]
जिसमें समस्त संकल्प-विक ल्पके समूह विलीन हो गये हैं ऐसा प्रगट करता है । (द्रव्यकर्म,
भावकर्म, नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्योंमें अपनी कल्पना करना सो संकल्प है, और ज्ञेयोंके भेदसे
ज्ञानमें भेद ज्ञात होना सो विकल्प है ।) ऐसा शुद्धनय प्रकाशरूप होता है ।१०।
उस शुद्धनयको गाथासूत्रसे कहते हैं : —
अनबद्धस्पृष्ट अनन्य अरु, जो नियत देखे आत्मको ।
अविशेष अनसंयुक्त उसको शुद्धनय तू जानजो ।।१४।।
गाथार्थ : — [यः ] जो नय [आत्मानम् ] आत्माको [अबद्धस्पृष्टम् ] बन्ध रहित और
परके स्पर्शसे रहित, [अनन्यकं ] अन्यत्व रहित, [नियतम् ] चलाचलता रहित, [अविशेषम् ]
विशेष रहित, [असंयुक्तं ] अन्यके संयोगसे रहित — ऐसे पांच भावरूपसे [पश्यति ] देखता
है [तं ] उसे, हे शिष्य ! तू [शुद्धनयं ] शुद्धनय [विजानीहि ] जान ।
टीका : — निश्चयसे अबद्ध-अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त — ऐसे
आत्माकी जो अनुभूति सो शुद्धनय है, और वह अनुभूति आत्मा ही है; इसप्रकार आत्मा
एक ही प्रकाशमान है । (शुद्धनय, आत्माकी अनुभूति या आत्मा सब एक ही हैं, अलग
नहीं ।) यहां शिष्य पूछता है कि जैसा ऊ पर कहा है वैसे आत्माकी अनुभूति कैसे हो सकती
है ? उसका समाधान यह है : — बद्धस्पृष्टत्व आदि भाव अभूतार्थ हैं, इसलिए यह अनुभूति
हो सकती है ।
इस बातको दृष्टान्तसे प्रगट करते हैं —