आत्माको कैसे जाना जा सकता है ? इसलिए दूसरे नयको — उसके प्रतिपक्षी शुद्धद्रव्यार्थिक
नैमित्तिक भावोंसे रहित देखा जाये तो सर्व (पांच) भावोंसे जो अनेकप्रकारता है वह अभूतार्थ
है — असत्यार्थ है ।
यहां यह समझना चाहिए कि वस्तुका स्वरूप अनन्त धर्मात्मक है, वह स्याद्वादसे यथार्थ सिद्ध होता है । आत्मा भी अनन्त धर्मवाला है । उसके कुछ धर्म तो स्वाभाविक हैं और कुछ पुद्गलके संयोगसे होते हैं । जो कर्मके संयोगसे होते हैं, उनसे तो आत्माकी सांसारिक प्रवृत्ति होती है और तत्सम्बन्धी जो सुख-दुःखादि होते हैं उन्हें भोगता है । यह, इस आत्माकी अनादिकालीन अज्ञानसे पर्यायबुद्धि है; उसे अनादि-अनन्त एक आत्माका ज्ञान नहीं है । इसे बतानेवाला सर्वज्ञका आगम है । उसमें शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे यह बताया है कि आत्माका एक असाधारण चैतन्यभाव है जो कि अखण्ड नित्य और अनादिनिधन है । उसे जाननेसे पर्यायबुद्धिका पक्षपात मिट जाता है । परद्रव्योंसे, उनके भावोंसे और उनके निमित्तसे होनेवाले अपने विभावोंसे अपने आत्माको भिन्न जानकर जीव उसका अनुभव करता है तब परद्रव्यके भावोंस्वरूप परिणमित नहीं होता; इसलिए कर्म बन्ध नहीं होता और संसारसे निवृत्त हो जाता है । इसलिये पर्यायार्थिकरूप व्यवहारनयको गौण करके अभूतार्थ (असत्यार्थ) कहा है और शुद्ध निश्चयनयको सत्यार्थ कहकर उसका आलम्बन दिया है । वस्तुस्वरूपकी प्राप्ति होनेके बाद उसका भी आलम्बन नहीं रहता । इस कथनसे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि शुद्धनयको सत्यार्थ कहा है, इसलिए अशुद्धनय सर्वथा असत्यार्थ ही है । ऐसा माननेसे वेदान्तमतवाले जो कि संसारको सर्वथा अवस्तु मानते हैं उनका सर्वथा एकान्त पक्ष आ जायेगा और उससे मिथ्यात्व आ जायेगा, इसप्रकार यह शुद्धनयका आलम्बन भी वेदान्तियोंकी भांति मिथ्यादृष्टिपना लायेगा । इसलिये सर्व नयोंकी कथंचित् सत्यार्थताका श्रद्धान करनेसे ही सम्यग्दृष्टि हुआ जा सकता है । इसप्रकार स्याद्वादको समझकर जिनमतका सेवन करना चाहिए, मुख्य-गौण कथनको सुनकर सर्वथा एकान्त पक्ष नहीं पकड़ना चाहिए । इस गाथासूत्रका विवेचन करते हुए टीकाकार आचार्यने भी कहा है कि आत्मा व्यवहारनयकी दृष्टिमें जो