Samaysar (Hindi).

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
परिणामोंकर सहित वह सुखदुःखरूप दिखाई देता है यह सब अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप
व्यवहारनयका विषय है इस दृष्टि (अपेक्षा)से देखा जाये तो यह सब सत्यार्थ है परन्तु
आत्माका एक स्वभाव इस नयसे ग्रहण नहीं होता, और एक स्वभावको जाने बिना यथार्थ
आत्माको कैसे जाना जा सकता है ? इसलिए दूसरे नयको
उसके प्रतिपक्षी शुद्धद्रव्यार्थिक
नयकोग्रहण करके, एक असाधारण ज्ञायकमात्र आत्माका भाव लेकर, उसे शुद्धनयकी
दृष्टिसे सर्व परद्रव्योंसे भिन्न, सर्व पर्यायोंमें ऐकाकार, हानिवृद्धिसे रहित, विशेषोंसे रहित और
नैमित्तिक भावोंसे रहित देखा जाये तो सर्व (पांच) भावोंसे जो अनेकप्रकारता है वह अभूतार्थ
है
असत्यार्थ है
यहां यह समझना चाहिए कि वस्तुका स्वरूप अनन्त धर्मात्मक है, वह स्याद्वादसे
यथार्थ सिद्ध होता है आत्मा भी अनन्त धर्मवाला है उसके कुछ धर्म तो स्वाभाविक हैं
और कुछ पुद्गलके संयोगसे होते हैं जो कर्मके संयोगसे होते हैं, उनसे तो आत्माकी
सांसारिक प्रवृत्ति होती है और तत्सम्बन्धी जो सुख-दुःखादि होते हैं उन्हें भोगता है यह, इस
आत्माकी अनादिकालीन अज्ञानसे पर्यायबुद्धि है; उसे अनादि-अनन्त एक आत्माका ज्ञान नहीं
है
इसे बतानेवाला सर्वज्ञका आगम है उसमें शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे यह बताया है कि
आत्माका एक असाधारण चैतन्यभाव है जो कि अखण्ड नित्य और अनादिनिधन है उसे
जाननेसे पर्यायबुद्धिका पक्षपात मिट जाता है परद्रव्योंसे, उनके भावोंसे और उनके निमित्तसे
होनेवाले अपने विभावोंसे अपने आत्माको भिन्न जानकर जीव उसका अनुभव करता है तब
परद्रव्यके भावोंस्वरूप परिणमित नहीं होता; इसलिए कर्म बन्ध नहीं होता और संसारसे निवृत्त
हो जाता है
इसलिये पर्यायार्थिकरूप व्यवहारनयको गौण करके अभूतार्थ (असत्यार्थ) कहा
है और शुद्ध निश्चयनयको सत्यार्थ कहकर उसका आलम्बन दिया है वस्तुस्वरूपकी प्राप्ति
होनेके बाद उसका भी आलम्बन नहीं रहता इस कथनसे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि
शुद्धनयको सत्यार्थ कहा है, इसलिए अशुद्धनय सर्वथा असत्यार्थ ही है ऐसा माननेसे
वेदान्तमतवाले जो कि संसारको सर्वथा अवस्तु मानते हैं उनका सर्वथा एकान्त पक्ष आ जायेगा
और उससे मिथ्यात्व आ जायेगा, इसप्रकार यह शुद्धनयका आलम्बन भी वेदान्तियोंकी भांति
मिथ्यादृष्टिपना लायेगा
इसलिये सर्व नयोंकी कथंचित् सत्यार्थताका श्रद्धान करनेसे ही
सम्यग्दृष्टि हुआ जा सकता है इसप्रकार स्याद्वादको समझकर जिनमतका सेवन करना चाहिए,
मुख्य-गौण कथनको सुनकर सर्वथा एकान्त पक्ष नहीं पकड़ना चाहिए इस गाथासूत्रका
विवेचन करते हुए टीकाकार आचार्यने भी कहा है कि आत्मा व्यवहारनयकी दृष्टिमें जो