सुरक्षित रहे — इसप्रकार उनके भावोंको स्पर्शकर अनुवाद हो तभी प्रकाशन समाजको सम्पूर्णतया
लाभदायी सिद्ध हो। सद्भाग्यसे मुमुक्षु भाईश्री हिम्मतलाल जेठालाल शाहने ( – पूज्य बहिनश्री
चम्पाबेनके भाईने) अपनी श्रुतभक्तिसे, उसका अनुवाद कर देनेकी स्वीकृति देकर वह काम अपने
हाथमें लिया और उन्होंने यह अनुवाद-कार्य साँगोपाँग सम्पन्न किया।
इस पवित्र परमागमके गुजराती अनुवादका महान कार्य सम्पन्न करनेवाले भाईश्री
हिम्मतलालभाई अध्यात्मरसिक विद्वान् होनेके अतिरिक्त गम्भीर, वैराग्यशाली, शान्त और विवेकी
सज्जन हैं तथा कवि भी हैं। उन्होंने समयसार एवं उसकी ‘आत्मख्याति’ संस्कृत टीकाके गुजराती
गद्यानुवादके अतिरिक्त उसकी प्राकृतभाषाबद्ध मूल गाथाओंका गुजराती पद्यानुवाद भी हरिगीत
छन्दमें किया है; वह बहुत ही मधुर, स्पष्ट एवं सरल है और प्रत्येक गाथार्थके पहले वह छापा
गया है। इसप्रकार सारा ही अनुवाद एवं हरिगीत काव्य जिज्ञासु जीवोंको बहुत ही उपयोगी एवं
उपकारी हुये हैं। इसके लिये भाईश्री हिम्मतलाल जेठालाल शाहके प्रति जितनी भी कृतज्ञता प्रगट
की जाय उतनी कम ही है। इस समयसार जैसे उत्तम परमागमका अनुवाद करनेका परम सौभाग्य
उनको प्राप्त हुआ एतदर्थ वे सचमुच अभिनन्दनीय हैं।
आजसे लगभग ढाईसौ वर्ष पहले पं. जयचन्द्रजीने इस परमागमका हिन्दी भाषान्तर करके
जैनसमाज पर उपकार किया है। यह गुजराती अनुवाद श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डलकी ओरसे
प्रकाशित हुए हिन्दी समयसारके आधारसे किया गया है, गुजराती अनुवादका हिन्दी रूपान्तर पं.
परमेष्ठिदासजी जैन, ललितपुरने और इस प्रस्तुत संस्करणका मुद्रणसंशोधन-कार्य ब्र० चन्दूभाई
झोबालियाने तथा सुन्दर मुद्रणकार्य ‘कहान मुद्रणालय’, सोनगढ़के मालिक श्री ज्ञानचन्दजी जैनने
किया है। अतः यह संस्था उन सबके प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करती है।
यह परमागम समयसार सचमुच एक उत्तमोत्तम शास्त्र है। साधक जीवोंके लिये उसमें
आध्यात्मिक मन्त्रोंका भण्डार भरा है। भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवके पश्चात् रच गये प्रायः सब
अध्यात्मशास्त्र पर समयसारका प्रभाव पड़ा है। अध्यात्मके सर्व बीज समयसारमें समाविष्ट हैं।
सभी जिज्ञासु जीवोंको गुरुगमपूर्वक इस परमागमका अभ्यास अवश्य करने योग्य है। परम
महिमावन्त निज शुद्धात्मस्वरूपको अनुभवगम्य करनेके लिये इस शास्त्रमें अद्वितीय उपदेश है; और
वह अनुभव ही प्रत्येक जिज्ञासु जीवका एकमात्र परम कर्तव्य है। श्री पद्मनन्दी मुनिराज कहते
हैं कि —
तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता।
निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।।२३।।
(पद्मनन्दिपंचविंशतिका – एकत्व अधिकार)
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