स्वरूपने युक्ति, आगम अने स्वानुभवमूलक निज आत्मवैभव वडे पोतानी मौलिक शैलीथी अत्यंत स्पष्टपणे समजाव्युं छे. आ टीका वांचतां परमार्थतत्त्वना मधुर रसास्वादी धर्मजिज्ञासुओना हृदयमां निःसंदेह आत्मानो अपार महिमा आवे छे, केम के आचार्यदेवे तेमां परम हितोपदेशक, सर्वज्ञवीतराग तीर्थंकर भगवंतोनां हार्द खोलीने अध्यात्मतत्त्वनां निधानो ठांसीठांसीने भरी दीधां छे. अध्यात्मतत्त्वना हार्दने सर्वांग प्रकाशनारी आ ‘आत्मख्याति’ जेवी सुंदर टीका हजु सुधी बीजा कोई जैन अध्यात्मग्रन्थनी लखायेली नथी. आ कळिकाळमां जेम शासनमान्य भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे जगद्गुरु तीर्थंकरदेव जेवुं काम कर्युं छे तेम श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे, जाणे के तेओ कुंदकुंदभगवानना हृदयमां पेसी गया होय ते रीते तेमना गंभीर आशयोने यथार्थपणे व्यक्त करीने, तेमना गणधर जेवुं काम कर्युं छे.
‘आत्मख्याति’ टीकानो बहु भाग तो गद्यात्मक छे अने थोडो भाग पद्यात्मक छे. मूळ गाथा के गाथाजूथनी गद्यात्मक टीकाना अंतमां आवतां अध्यात्मरसथी अने आत्मानुभवनी मस्तीथी भरपूर आ मधुर पद्यो जिनमंदिरना उन्नत धवल शिखर उपर शोभता सुवर्णकलश समान टीकानी शोभामां अत्यंत अभिवृद्धि करे छे. आ कलश-काव्यो ग्रंथमां निर्दिष्ट विविध विषयोना आत्मस्पर्शी विवेचनात्मक गद्यांशनी चूलिकास्वरूप होवा छतां तेमने पृथक्पणे लईए तोपण तेओ संधिबद्ध, अर्थगंभीर अने परमार्थतत्त्वप्रतिपादक एक सुंदर अध्यात्मग्रंथ बने छे. तेनुं नाम ‘समयसार-कलश’ छे अने तेना पर अध्यात्मरसिक पंडित श्री राजमलजी ‘पांडे’ए टीका लखी छे, जेने आ शास्त्रमां ‘खंडान्वय सहित अर्थ’ ए नामे आपवामां आवी छे.
कलश-टीकाना रचयिता पांडे राजमलजी विक्रम संवतनी सत्तरमी शताब्दिमां थई गयेला कविवर श्री बनारसीदासजीथी थोडांक वर्षो पहेलां ज थई गया होय एम विद्वानोनुं मानवुं छे. तेमणे आ कलशटीका राजस्थानना ढूंढार प्रदेशमां बोलाती जूनी ढूंढारी भाषामां लखेली छे. श्री अमृतचंद्राचार्यदेवनां कलशकाव्योमां अध्यात्मतत्त्वनां जे गूढ रहस्यो अति संक्षेपथी भरेलां छे तेने टीकाकार पंडितजीए आ टीकामां सामान्य बुद्धिना जिज्ञासु जीवो पण सरळताथी समजी शके ए रीते विस्तारथी, स्पष्टतापूर्वक अने जोरदार शैलीथी खुल्लां कर्यां छे. आ टीकामां स्थाने स्थाने निर्विकल्प सहज स्वात्मानुभवनुं अतिशय माहात्म्य बताव्युं छे अने तेनी प्राप्ति करवा प्रेरणा आपी छे. विज्ञानघन निज आत्माना निर्विकल्प रसास्वादरूप अनुभव सिवाय जीव जे कोई व्रत-नियम-दया-दान-पूजा-भक्ति वगेरे बाह्य क्रियाकांडना आचरणस्वरूप व्यवहारचारित्रना विकल्पोमां गूंचाइ रहे ते तेनो वृथा क्लेश छे, तेनाथी तेने जरा पण स्वात्मकल्याणनी प्राप्ति नथी तथा ते भवान्तनुं लेशमात्र पण कारण