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विकल्पवीचिभिः उच्छलत्’’ (पुष्कल) अति घणी, (उच्चल) अति स्थूल एवी जे (विकल्प) भेदकल्पना, एवी जे (वीचिभिः) तरंगावली तेना वडे (उच्छलत्) आकुलतारूप छे; तेथी हेय छे, उपादेय नथी. ४६ – ९१.
भावभावपरमार्थतयैकम् ।
चेतये समयसारमपारम् ।।४७-९२।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘समयसारम् चेतये’’ समयसारनो अर्थात् शुद्ध चैतन्यनो अनुभव करवो कार्यसिद्धि छे. केवो छे? ‘‘अपारम्’’ अनादि-अनन्त छे. वळी केवो छे? ‘‘एकम्’’ शुद्धस्वरूप छे. शा वडे शुद्धस्वरूप छे? ‘‘चित्स्वभावभरभावितभावा- भावभावपरमार्थतया एकम्’’ (चित्स्वभाव) ज्ञानगुण तेनो (भर) अर्थग्रहणव्यापार तेना वडे (भावित) थाय छे (भाव) उत्पाद (अभाव) विनाश (भाव) ध्रौव्य एवा त्रण भेद, तेमना वडे (परमार्थतया एकम्) साध्युं छे एक अस्तित्व जेनुं. शुं करीने? ‘‘समस्तां बन्धपद्धतिम् अपास्य’’ (समस्तां) जेटली असंख्यात लोकमात्र भेदरूप छे (बन्धपद्धतिम्) ज्ञानावरणादि कर्मबंधरचना तेनुं (अपास्य) ममत्व छोडीने. भावार्थ आम छे के – शुद्धस्वरूपनो अनुभव थतां जेम नयविकल्पो मटे छे तेम समस्त कर्मना उदये जेटला भाव छे ते पण अवश्य मटे छे एवो स्वभाव छे. ४७ – ९२.
सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम् ।
ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किञ्चनैकोऽप्ययम् ।।४८-९३।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘यः समयस्य सारः भाति’’ (यः) जे (समयस्य सारः)