कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धस्वरूप आत्मा (भाति) पोताना शुद्ध स्वरूपे परिणमे छे. जे रीते परिणमे छे ते कहे छे – ‘‘नयानां पक्षैः विना अचलं अविकल्पभावम् आक्रामन्’’ (नयानां) द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक एवा जे अनेक विकल्पो तेमनो (पक्षैः विना) पक्षपात कर्या विना, (अचलं) त्रणे काळ एकरूप छे एवी (अविकल्पभावम्) निर्विकल्प शुद्ध चैतन्यवस्तु ते-रूप (आक्रामम्) जे रीते शुद्धस्वरूप छे ते रीते परिणमतो थको. भावार्थ आम छे के – जेटला नय छे तेटला श्रुतज्ञानरूप छे; श्रुतज्ञान परोक्ष छे, अनुभव प्रत्यक्ष छे; तेथी श्रुतज्ञान विना जे ज्ञान छे ते प्रत्यक्ष अनुभवे छे. तेथी प्रत्यक्षपणे अनुभवतो थको जे कोई शुद्धस्वरूप आत्मा ‘‘सः विज्ञानैकरसः’’ ते ज ज्ञानपुंज वस्तु छे एम कहेवाय छे, ‘‘सः भगवान्’’ ते ज परब्रह्म परमेश्वर एम कहेवाय छे, ‘‘एषः पुण्यः’’ ते ज पवित्र पदार्थ एम पण कहेवाय छे, ‘‘एषः पुराणः’’ ते ज अनादिनिधन वस्तु एम पण कहेवाय छे, ‘‘एषः पुमान्’’ ते ज अनंत गुणे बिराजमान पुरुष एम पण कहेवाय छे, ‘‘अयं ज्ञानं दर्शनम् अपि’’ ते ज सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान एम पण कहेवाय छे. ‘‘अथवा किम्’’ बहु शुं कहीए? ‘‘अयम् एकः यत् किञ्चन अपि’’ (अयम् एकः) आ जे छे शुद्धचैतन्यवस्तुनी प्राप्ति (यत् किञ्चन अपि) तेने जे कांई कहीए ते ज छे, जेवी पण कहेवामां आवे तेवी ज छे. भावार्थ आम छे के – शुद्धचैतन्यमात्रवस्तुप्रकाश निर्विकल्प एकरूप छे, तेनां नामनो महिमा करवामां आवे तो अनंत नाम कहीए तेटलां पण घटे, वस्तु तो एकरूप छे. केवो छे ते शुद्धस्वरूप आत्मा? ‘‘निभृतैः स्वयं आस्वाद्यमानः’’ निश्चल ज्ञानी पुरुषो वडे पोते स्वयं अनुभवशील छे. ४८ – ९३.
दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात् ।
आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ।।४९-९४।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘अयं आत्मा गतानुगततां आयाति तोयवत्’’ (अयं) द्रव्यरूप विद्यमान छे एवो (आत्मा) आत्मा अर्थात् चेतनपदार्थ (गतानुगतताम्) स्वरूपथी नष्ट थयो हतो ते, पाछो ते स्वरूपने प्राप्त थयो एवा भावने (आयाति)