कहानजैनशास्त्रमाळा ]
(भ्रमेण) भ्रम अर्थात् परमार्थशून्य अभिमानमात्र, ते-रूपे (चरतः) प्रवर्ते छे. केवो छे जातिभेदभ्रम? ‘‘एकः मदिरां दूरात् त्यजति’’ (एकः) चंडालणीना पेटे ऊपज्यो छे परंतु प्रतिपालित ब्राह्मणना घरे थयो छे एवो जे छे ते (मदिरां) सुरापाननो (दूरात् त्यजति) अत्यंत त्याग करे छे, अडतो पण नथी, नाम पण लेतो नथी, — एवो विरक्त छे. शा कारणथी? ‘‘ब्राह्मणत्वाभिमानात्’’ (ब्राह्मणत्व) ‘हुं ब्राह्मण’ एवो संस्कार, तेना (अभिमानात्) पक्षपातथी. भावार्थ आम छे के — शूद्राणीना पेटे ऊपज्यो छुं एवा मर्मने जाणतो नथी, ‘हुं ब्राह्मण, मारा कुळमां मदिरा निषिद्ध छे’ एम जाणीने मदिरा छोडी छे ते पण विचारतां चंडाळ छे; तेवी रीते कोई जीव शुभोपयोगी थतो थको — यतिक्रियामां मग्न थतो थको — शुद्धोपयोगने जाणतो नथी, केवळ यतिक्रियामात्र मग्न छे, ते जीव एवुं माने छे के ‘हुं तो मुनीश्वर, अमने विषयकषायसामग्री निषिद्ध छे’ एम जाणीने विषयकषायसामग्रीने छोडे छे, पोताने धन्यपणुं माने छे, मोक्षमार्ग माने छे, परंतु विचार करतां एवो जीव मिथ्याद्रष्टि छे, कर्मबंधने करे छे, कांई भलापणुं तो नथी. ‘‘अन्यः तया एव नित्यं स्नाति’’ (अन्यः) शूद्राणीना पेटे ऊपज्यो छे, शूद्रनो प्रतिपालित थयो छे, एवो जीव (तया) मदिराथी (एव) अवश्यमेव (नित्यं स्नाति) नित्य स्नान करे छे अर्थात् तेने अति मग्नपणे पीए छे. शुं जाणीने पीए छे? ‘‘स्वयं शूद्रः इति’’ ‘हुं शूद्र, अमारा कुळमां मदिरा योग्य छे’ एवुं जाणीने. आवो जीव, विचार करतां, चंडाळ छे. भावार्थ आम छे के — कोई मिथ्याद्रष्टि जीव अशुभोपयोगी छे, गृहस्थक्रियामां रत छे — ‘अमे गृहस्थ, मने विषय-कषाय क्रिया योग्य छे’ एवुं जाणीने विषय-कषाय सेवे छे ते जीव पण मिथ्याद्रष्टि छे, कर्मबंध करे छे, केम के कर्मजनित पर्यायमात्रने पोतारूप जाणे छे, जीवना शुद्ध स्वरूपनो अनुभव नथी. २ – १०१.
सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः ।
स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः ।।३-१०२।।