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प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः ।
स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः ।।५-१०४।।
खंडान्वय सहित अर्थः — अहीं कोई प्रश्न करे छे के शुभ क्रिया तथा अशुभ क्रिया सर्व निषिद्ध करी, तो मुनीश्वर कोने अवलंबे छे? तेनुं आम समाधान करवामां आवे छे – ‘‘सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि निषिद्धे’’ (सर्वस्मिन्) आमूलाग्र अर्थात् समग्र (सुकृत) व्रत-संयम-तपरूप क्रिया अथवा शुभोपयोगरूप परिणाम, (दुरिते) विषय-कषायरूप क्रिया अथवा अशुभोपयोगरूप संक्लेश परिणाम – एवां (कर्मणि) कार्यरूप (निषिद्धे) मोक्षमार्ग नथी एवुं मानता थका, ‘‘किल नैष्कर्म्ये प्रवृत्ते’’ (किल) निश्चयथी (नैष्कर्म्ये) सूक्ष्म-स्थूलरूप अंतर्जल्प-बहिर्जल्परूप समस्त विकल्पोथी रहित निर्विकल्प शुद्ध चैतन्यमात्रप्रकाशरूप वस्तु मोक्षमार्ग छे एवुं — (प्रवृत्ते) एकरूप एवो ज छे एवुं — निश्चयथी ठरावता थका, ‘‘खलु मुनयः अशरणाः न सन्ति’’ (खलु) खरेखर, (मुनयः) संसार-शरीर-भोगथी विरक्त थई धारण कर्युं छे यतिपणुं जेमणे तेओ (अशरणाः न सन्ति) आलंबन विना शून्यमन एवा तो नथी. तो केवा छे? ‘‘तदा हि एषां ज्ञानं स्वयं शरणं’’ (तदा) जे काळे एवी प्रतीति आवे छे के अशुभ क्रिया मोक्षमार्ग नथी, शुभ क्रिया पण मोक्षमार्ग नथी, ते काळे (हि) निश्चयथी (एषां) मुनीश्वरोने (ज्ञानं स्वयं शरणं) ज्ञान अर्थात् शुद्धस्वरूपनो अनुभव सहज ज आलंबन छे. केवुं छे ज्ञान? ‘‘ज्ञाने प्रतिचरितम्’’ जे ब्राह्यरूप परिणम्युं हतुं ते ज पोताना शुद्धस्वरूपे परिणम्युं छे. शुद्धस्वरूपनो अनुभव थतां कांई विशेष पण छे. ते कहे छे — ‘‘एते तत्र निरताः परमम् अमृतं विन्दन्ति’’ (एते) विद्यमान जे सम्यग्द्रष्टि मुनीश्वर (तत्र) शुद्धस्वरूपना अनुभवमां (निरताः) मग्न छे ते (परमम् अमृतं) सर्वोत्कृष्ट अतीन्द्रिय सुखने (विन्दन्ति) आस्वादे छे. भावार्थ आम छे के शुभ-अशुभ क्रियामां मग्न थतां जीव विकल्पी