कलशमां ‘‘इमाम् नवतत्त्वसन्ततिम् मुक्त्वा’’ ए खंडनो भावार्थ भरतां तेओश्री कहे छे के, ‘‘संसार-अवस्थामां जीवद्रव्य नव तत्त्वरूप परिणम्युं छे ते तो विभावपरिणति छे, तेथी नव तत्त्वरूप वस्तुनो अनुभव मिथ्यात्व छे’’ अने ते ज कलशमां ‘‘यदस्यात्मनः इह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् दर्शनम् नियमात् एतदेव सम्यग्दर्शनम्’’ ए खंडनो अर्थ करतां तेमणे कह्युं छे के, ‘‘कारण के आ ज जीवद्रव्य सकळ कर्मोपाधिथी रहित जेवुं छे तेवो ज प्रत्यक्षपणे तेनो अनुभव, ते ज निश्चयथी सम्यग्दर्शन छे.’’
सम्यग्दर्शननी माफक सम्यग्ज्ञान विषेनी विपरीत मान्यताओ पण तेमणे जोरदार शैलीथी द्रढतापूर्वक दूर करी छे. कोई जिज्ञासु जीव छ द्रव्य, नव पदार्थ आदिना के जैन शास्त्रोना केवळ विकल्पपूर्वक जाणपणाने सम्यग्ज्ञान मानी ले एवो अवकाश तेमणे रहेवा दीधो नथी. सम्यग्ज्ञाननुं स्वरूप बतावतां पंडितजीए अनेक स्थळे स्वानुभवप्रधान ज्ञानने ज सम्यग्ज्ञान कह्युं छे. जेम के — १३मा कलशना ‘‘किल इयम् एव ज्ञानानुभूतिः इति बुद्धवा’’ ए खंडना अर्थमां तथा भावार्थमां तेमणे तेना हार्दनुं उद्घाटन करतां लख्युं छे के, ‘‘निश्चयथी आ जे अनुभूति कही ते ज ज्ञानानुभूति छे एटलीमात्र जाणीने. भावार्थ आम छे के जीववस्तुनो जे प्रत्यक्षपणे आस्वाद, तेने नामथी आत्मानुभव एम कहेवाय अथवा ज्ञानानुभव एम कहेवाय; नामभेद छे, वस्तुभेद नथी. एम जाणवुं के आत्मानुभव मोक्षमार्ग छे. आ प्रसंगे बीजो पण संशय थाय छे के, कोई जाणशे के द्वादशांगज्ञान कोई अपूर्व लब्धि छे. तेनुं समाधान आम छे के द्वादशांगज्ञान पण विकल्प छे. तेमां पण एम कह्युं छे के शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग छे. तेथी शुद्धात्मानुभूति थतां शास्त्र भणवानी कांई अटक ( – बंधन) नथी.’’ वळी, ११० मा कळशना
शुद्धत्वरूप परिणमन’’ एम कर्यो छे. ए रीते तेमणे भारपूर्वक द्रढ कर्युं छे के जेने निराकुळतालक्षण स्वात्मानंदरूपे परिणत स्वानुभूति थई होय तेने ज सत्यार्थ सम्यग्ज्ञान होई शके; ते सिवायनुं बीजुं केवळ परलक्षी विकल्पवाळुं शास्त्रज्ञान ते सम्यग्ज्ञान नथी.
वळी, सामान्यपणे जीवो शुभोपयोगने ज चारित्र माने छे अने शुद्ध परिणतिरूप चारित्रनो तेमने कांई ज ख्याल होतो नथी. एवा जीवोनुं अज्ञान दूर करवा माटे मिथ्या चारित्र अने सम्यक् चारित्र विषेनुं स्पष्ट विवरण आ टीकामां अनेक स्थळे मळी रहे छे. जेम के — १४२मा कलशना ‘‘कर्मभिः क्लिश्यन्तां’’ ए खंडनो अर्थ करतां पंडितजी लखे छे के, ‘‘विशुद्ध शुभोपयोगरूप परिणाम, जैनोक्त सूत्रोनुं अध्ययन, जीवादि द्रव्योना स्वरूपनुं वारंवार स्मरण, पंचपरमेष्ठीनी भक्ति ईत्यादि छे जे अनेक क्रियाभेद ते वडे बहु आक्षेप (आडंबर) करे छे तो करो, तथापि शुद्ध स्वरूपनी प्राप्ति थशे ते तो शुद्ध ज्ञान वडे थशे.’’ तथा ते ज कलशना ‘‘महाव्रततपोभारेण चिरं भग्नाः क्लिश्यन्तां’’ ए खंडना अर्थमां कहे छे