के, ‘‘हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रहथी रहितपणुं, महा परिषहोनुं सहवुं, तेना घणा बोजा वडे घणा काळ पर्यंत मरीने चूरो थता थका घणुं कष्ट करे छे तो करो, तथापि एवुं करतां कर्मक्षय तो थतो नथी.’’ पंडितजी स्वरूपाचरणलक्षण चारित्रनुं स्पष्ट विवरण १०६ मा कलशनी टीकामां विस्तारथी आ प्रमाणे करे छे — ‘‘शुद्ध वस्तुमात्र, तेनी स्वरूपनिष्पत्ति तेनाथी जे स्वरूपाचरणचारित्र ते ज, ते ज मोक्षमार्ग छे; आ वातमां संदेह नथी. भावार्थ आम छे के, कोइ जाणशे के स्वरूपाचरणचारित्र एवुं कहेवाय छे के आत्माना शुद्ध स्वरूपने विचारे अथवा चिंतवे अथवा एकाग्रपणे मग्न थइने अनुभवे. पण एवुं तो नथी, एम करतां बंध थाय छे, केम के एवुं तो स्वरूपाचरणचारित्र नथी. तो स्वरूपाचरणचारित्र केवुं छे? जेम पानुं (सुवर्णपत्र) तपाववाथी सुवर्णमांनी कालिमा जाय छे, सुवर्ण शुद्ध थाय छे, तेम जीवद्रव्यने अनादिथी अशुद्धचेतनारूप रागादि परिणमन हतुं ते जाय छे, शुद्धस्वरूपमात्र शुद्धचेतनारूपे जीवद्रव्य परिणमे छे, तेनुं नाम स्वरूपाचरणचारित्र कहेवाय छे; आवो मोक्षमार्ग छे. ....आवुं छे जे शुद्धचेतनापरिणमनरूप स्वरूपाचरणचारित्र ते आत्मद्रव्यनुं निजस्वरूप छे, शुभाशुभ क्रियानी माफक उपाधिरूप नथी, तेथी एक जीवद्रव्यस्वरूप छे. ....आवुं शुद्धपणुं मोक्षनुं कारण छे, एना विना जे कांइ क्रियारूप छे ते बधुं बंधनुं कारण छे.’’ तथा १६मा कलशनी टीकामां चारित्रनी टूंकी व्याख्या करतां ‘‘शुद्धत्वशक्तिनुं नाम चारित्र छे’’ अने १९मा कलशनी टीकामां चारित्रने ‘‘शुद्धस्वरूपनुं आचरण’’-एम कह्युं छे.
वळी, चोथा गुणस्थाने मात्र श्रद्धा ज होय छे, आत्मानुभव जेवुं कांई होतुं नथी — एम घणा जीवो माने छे, तेमनो आ भ्रम पंडितजी अनेक स्थळे अनुभवनुं स्वरूप स्पष्टपणे वर्णवीने दूर करे छे. जेम के — ९मा कलशना ‘‘अस्मिन् धाम्नि अनुभवमुपयाते द्वैतमेव न भाति’’ ए खंडना भावार्थमां तेओश्री कहे छे के, ‘‘अनुभव प्रत्यक्ष ज्ञान छे, प्रत्यक्ष ज्ञान छे एटले वेद्यवेदकभावपणे आस्वादरूप छे; ते अनुभव परसहायथी निरपेक्षपणे छे. आवो अनुभव जोके ज्ञानविशेष छे तोपण सम्यक्त्वनी साथे अविनाभूत छे, केम के ते सम्यग्द्रष्टिने होय छे, मिथ्याद्रष्टिने नथी होतो एवो निश्चय छे. आवो अनुभव थतां जीववस्तु पोताना शुद्ध स्वरूपने प्रत्यक्षपणे आस्वादे छे. तेथी जेटला काळ सुधी अनुभव छे तेटला काळ सुधी वचनव्यवहार सहज ज अटकी जाय छे, केम के वचनव्यवहार तो परोक्षपणे कथक छे. आ जीव तो प्रत्यक्षपणे अनुभवशील छे, तेथी (अनुभवकाळमां) वचनव्यवहार पर्यन्त कांइ रह्युं नहि.’’ तथा १९मा कलशना ‘‘मेचकामेचकत्वयोः आत्मनः चिन्तया एव अलं’’ ए खंडना भावार्थमां पंडितजी अनुभवनुं स्वरूप बतावतां कहे छे के, ‘‘अहीं कोइ प्रश्न करे छे के विचारतां थकां तो अनुभव नथी,