Samaysar Kalash Tika-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 12.

< Previous Page   Next Page >


Page 14 of 269
PDF/HTML Page 36 of 291

 

१४

समयसार-कलश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

विभावरूप छे, उपाधिरूप छे; तेथी निजस्वरूप विचारतां ते, जीवनुं स्वरूप नथी एम कहेवाय छे. केवुं छे शुद्धस्वरूप? ‘‘यत्र अमी बद्धस्पृष्टभावादयः प्रतिष्ठां न हि विदधति’’ (यत्र) जे शुद्धात्मस्वरूपमां (अमी) विद्यमान (बद्ध) अशुद्ध रागादि भाव, (स्पृष्ट) परस्पर पिंडरूप एकक्षेत्रावगाह अने (भावादयः) आदि शब्दथी अन्यभाव, अनियतभाव, विशेषभाव अने संयुक्तभाव इत्यादि जे विभावपरिणामो छे ते समस्त भावो शुद्धस्वरूपमां (प्रतिष्ठां) शोभा (न हि विदधति) नथी धारण करता. नर, नारक, तिर्यंच अने देवपर्यायरूप भावनुं नाम अन्यभाव छे; असंख्यात प्रदेशसंबंधी संकोच-विस्ताररूप परिणमननुं नाम अनियतभाव छे; दर्शन, ज्ञान अने चारित्ररूप भेदकथननुं नाम विशेषभाव छे; तथा रागादि उपाधि सहितनुं नाम संयुक्तभाव छे. भावार्थ आम छे के बद्ध, स्पृष्ट, अन्य, अनियत, विशेष अने संयुक्त एवा जे छ विभाव परिणामो छे ते समस्त, संसार-अवस्थायुक्त जीवना छे, शुद्ध जीवस्वरूप अनुभवतां जीवना नथी. केवा छे बद्धस्पृष्ट आदि विभावभाव?

‘‘स्फु टं’’ प्रगटपणे ‘‘एत्य अपि’’ ऊपज्या थका विद्यमान ज छे

तोपण ‘‘उपरि तरन्तः’’ उपर उपर ज रहे छे. भावार्थ आम छे के जीवनो ज्ञानगुण त्रिकाळगोचर छे तेवी रीते रागादि विभावभाव जीववस्तुमां त्रिकाळगोचर नथी. जोके संसार-अवस्थामां विद्यमान ज छे तोपण मोक्ष- अवस्थामां सर्वथा नथी, तेथी एवो निश्चय छे के रागादि जीवस्वरूप नथी. ११.

(शार्दूलविक्रीडित)
भूतं भान्तमभूतमेव रभसा निर्भिद्य बन्धं सुधी-
र्यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्
आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं
नित्यं कर्मकलङ्कपङ्कविकलो देवः स्वयं शाश्वतः
।।१२।।

खंडान्वय सहित अर्थः‘‘अयम् आत्मा व्यक्तः आस्ते’’ (अयम्) आम (आत्मा) चेतनालक्षण जीव (व्यक्तः) स्व-स्वभावरूप (आस्ते) थाय छे. केवो थाय छे? ‘‘नित्यं कर्मकलङ्कपङ्कविकलः’’ (नित्यं) त्रिकाळगोचर (कर्म) अशुद्धपणारूप (कलङ्कपङ्क) कलुषताकादवथी (विकलः) सर्वथा भिन्न थाय छे. वळी केवो छे?