कहानजैनशास्त्रमाळा ]
सहज (एकत्वतः) निर्भेदपणुं होवाथी; — आवो निश्चयनय कहेवाय छे. ‘‘आत्मा प्रमाणतः समम् मेचकः अमेचकः अपि च’’ (आत्मा) चेतनद्रव्य (समम्) एक ज काळे (मेचकः अमेचकः अपि च) मलिन पण छे अने निर्मळ पण छे. कोनी अपेक्षाए? (प्रमाणतः) युगपद् अनेक धर्मग्राहक ज्ञाननी अपेक्षाए. तेथी प्रमाणद्रष्टिए जोतां एक ज काळे जीवद्रव्य भेदरूप पण छे, अभेदरूप पण छे. १६.
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘एकः अपि व्यवहारेण मेचकः’’ (एकः अपि) द्रव्यद्रष्टिथी जोके जीवद्रव्य शुद्ध छे तोपण (व्यवहारेण) गुण-गुणीरूप भेदद्रष्टिथी (मेचकः) मलिन छे. ते पण कोनी अपेक्षाए? ‘‘त्रिस्वभावत्वात्’’ (त्रि) दर्शन-ज्ञान- चारित्र, ते त्रण छे (स्वभावत्वात्) सहज गुणो जेना, एवुं होवाथी. ते पण केवुं होवाथी? ‘‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रिभिः परिणतत्वतः’’ केम के ते दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रण गुणोरूपे परिणमे छे, तेथी भेदबुद्धि पण घटे छे. १७.
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘तु परमार्थेन एककः अमेचकः’’ (तु) ‘तु’ पद द्वारा बीजो पक्ष कयो छे ते व्यक्त कर्युं छे. (परमार्थेन) परमार्थथी अर्थात् शुद्ध द्रव्यद्रष्टिथी (एककः) शुद्ध जीववस्तु (अमेचकः) निर्मळ छे – निर्विकल्प छे. केवो छे परमार्थ? ‘‘व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषा’’ (व्यक्त) प्रगट छे (ज्ञातृत्व) ज्ञानमात्र (ज्योतिषा) प्रकाश- स्वरूप जेमां एवो छे. भावार्थ आम छे के शुद्ध – निर्भेद वस्तुमात्रग्राहक ज्ञान निश्चयनय कहेवाय छे. ते निश्चयनयथी जीवपदार्थ सर्वभेदरहित शुद्ध छे. वळी केवो होवाथी शुद्ध छे? ‘‘सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वात्’’ (सर्व) समस्त द्रव्यकर्म-भावकर्म- नोकर्म अथवा ज्ञेयरूप परद्रव्य एवा जे (भावान्तर) उपाधिरूप विभावभाव तेमनुं