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(ध्वंसि) मेटनशील (मटाडवाना स्वभाववाळुं) छे (स्वभावत्वात्) निजस्वरूप जेनुं, एवो स्वभाव होवाथी शुद्ध छे. १८.
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘मेचकामेचकत्वयोः आत्मनः चिन्तया एव अलं’’ आत्मा (मेचक) ‘मलिन छे’ अने (अमेचक) ‘निर्मळ छे’ – आम आ बंने नयो पक्षपातरूप छे; (आत्मनः) चेतनद्रव्यना आवा (चिन्तया) विचारथी (अलं) बस थाओ; आवो विचार करवाथी तो साध्यनी सिद्धि नथी थती (एव) एम नक्की जाणवुं. भावार्थ आम छे के श्रुतज्ञानथी आत्मस्वरूप विचारतां घणा विकल्पो ऊपजे छे; एक पक्षथी विचारतां आत्मा अनेकरूप छे, बीजा पक्षथी विचारतां आत्मा अभेदरूप छे – आम विचारतां थकां तो स्वरूप-अनुभव नथी. अहीं कोई प्रश्न करे छे के विचारतां थकां तो अनुभव नथी, तो अनुभव क्यां छे? उत्तर आम छे के प्रत्यक्षपणे वस्तुने आस्वादतां थकां अनुभव छे. ते ज कहे छे — ‘‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः साध्यसिद्धिः’’ (दर्शन) शुद्धस्वरूपनुं अवलोकन, (ज्ञान) शुद्धस्वरूपनुं प्रत्यक्ष जाणपणुं, (चारित्र) शुद्धस्वरूपनुं आचरण — आवां कारणो करवाथी (साध्य) सकळकर्मक्षयलक्षण मोक्षनी (सिद्धिः) प्राप्ति थाय छे. भावार्थ आम छे के शुद्धस्वरूपनो अनुभव करतां मोक्षनी प्राप्ति छे. कोई प्रश्न करे छे के आटलो ज मोक्षमार्ग छे के कंई अन्य पण मोक्षमार्ग छे? उत्तर आम छे के आटलो ज मोक्षमार्ग छे. ‘‘न च अन्यथा’’ (च) परंतु (अन्यथा) अन्य प्रकारे (न) साध्यसिद्धि नथी थती. १९.
अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम् ।
न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ।।२०।।