कहानजैनशास्त्रमाळा ]
सर्वथा अवश्य मटे छे. जे काळे मिथ्यात्वपरिणमन मटे छे ते काळे अवश्य अनुभवशक्ति थाय छे. मिथ्यात्वपरिणमन जे रीते मटे छे ते रीत कहे छेः — ‘‘स्वं समालोक्य’’ (स्वं) पोतानी शुद्ध चैतन्यवस्तुनो (समालोक्य) स्वसंवेदनप्रत्यक्षपणे आस्वाद करीने. केवुं छे शुद्ध चेतन? ‘‘विलसन्तं’’ अनादिनिधन प्रगटपणे चेतनारूप परिणमी रह्युं छे. २३.
धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये ।
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ।।२४।।
खंडान्वय सहित अर्थः — अहीं कोई मिथ्याद्रष्टि कुवादी मतान्तर स्थापे छे के जीव अने शरीर एक ज वस्तु छे. जेम जैनो माने छे के शरीरथी जीवद्रव्य भिन्न छे तेम नथी, एक ज छे; केमके शरीरनुं स्तवन करतां आत्मानुं स्तवन थाय छे, एम जैनो पण माने छे. ए ज बतावे छे — ‘‘ते तीर्थेश्वराः वन्द्याः’’
अवश्य विद्यमान छे एवा (तीर्थेश्वराः) तीर्थंकरदेवो (वन्द्याः) त्रिकाळ नमस्कार करवायोग्य छे. केवा छे ते तीर्थंकरो? ‘‘ये कान्त्या एव दश दिशः स्नपयन्ति’’ (ये) तीर्थंकरो (कान्त्या) शरीरनी दीप्ति द्वारा (एव) नक्की (दश) पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण ए चार दिशा, चार खूणारूप विदिशा तथा ऊर्ध्वदिशा अने अधोदिशा ए दस (दिशः) दिशाओने (स्नपयन्ति) प्रक्षाल करे छे — पवित्र करे छे; एवा छे जे तीर्थंकरो तेमने नमस्कार छे. (जैनोने त्यां) आम जे कह्युं ते तो शरीरनुं वर्णन कर्युं, तेथी अमने एवी प्रतीति ऊपजी के शरीर अने जीव एक ज छे. वळी केवा छे तीर्थंकरो? ‘‘ये धाम्ना उद्दाममहस्विनां धाम निरुन्धन्ति’’ (ये) तीर्थंकरो (धाम्ना) शरीरना तेजथी (उद्दाममहस्विनां) उग्र तेजवाळा करोडो सूर्यना (धाम) प्रतापने (निरुन्धन्ति) रोके छे. भावार्थ आम छे के तीर्थंकरना शरीरमां एवी दीप्ति छे के जो कोटि सूर्य होय तो कोटिये सूर्यनी दीप्ति रोकाई जाय; एवा ते तीर्थंकरो छे. अहीं पण शरीरनी