कहानजैनशास्त्रमाळा ]
चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम् ।
शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि ।।३०।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘इह अहं एकम् स्वम् स्वयम् चेतये’’ (इह) विभावपरिणामो छूटी गया होवाथी (अहं) अनादिनिधन चिद्रूप वस्तु एवो हुं (एकं) समस्त भेदबुद्धिथी रहित शुद्ध वस्तुमात्र (स्वं) शुद्ध चिद्रूपमात्र वस्तुने (स्वयम्) परोपदेश विना ज पोतामां स्वसंवेदनप्रत्यक्षरूप (चेतये) आस्वादुं छुं — (द्रव्यद्रष्टिथी) जेवो हुं छुं एवो हवे (पर्यायमां) स्वाद आवे छे. केवी छे शुद्ध चिद्रूपवस्तु? ‘‘सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं’’ (सर्वतः) असंख्यात प्रदेशोमां (स्वरस) चैतन्यपणाथी (निर्भर) संपूर्ण छे (भावं) सर्वस्व जेनुं एवी छे. भावार्थ आम छे — कोई जाणशे के जैनसिद्धान्तनो वारंवार अभ्यास करवाथी द्रढ प्रतीति थाय छे तेनुं नाम अनुभव छे, पण एम नथी; मिथ्यात्वकर्मनो रस-पाक मटतां मिथ्यात्वभावरूप परिणमन मटे छे त्यारे वस्तुस्वरूपनो प्रत्यक्षपणे आस्वाद आवे छे तेनुं नाम अनुभव छे. वळी अनुभवशील जीव जेवुं अनुभवे छे तेवुं कहे छे — ‘‘मम कश्चन मोहः नास्ति नास्ति’’ (मम) मारे (कश्चन) द्रव्यपिंडरूप अथवा जीवसंबंधी भावपरिणमनरूप (मोहः) जेटला विभावरूप अशुद्ध परिणाम ते बधा (नास्ति नास्ति) सर्वथा नथी, नथी. हवे ते जेवो छे तेवो कहे छे — ‘‘शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि’’ (शुद्ध) समस्त विकल्पोथी रहित (चित्) चैतन्यना (घन) समूहरूप (महः) उद्योतनो (निधिः) समुद्र (अस्मि) हुं छुं. भावार्थ आम छे — कोई जाणशे के बधायनुं नास्तिपणुं थाय छे, तेथी एम कह्युं के शुद्ध चिद्रूपमात्र वस्तु प्रगट छे. ३०.