धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो ह्लादयत् ।।१-३३।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘ज्ञानं विलसति’’ (ज्ञानं) ज्ञान अर्थात् जीवद्रव्य (विलसति) जेवुं छे तेवुं प्रगट थाय छे. भावार्थ आम छे के अहीं सुधी विधिरूपे शुद्धांगतत्त्वरूप जीवनुं निरूपण कर्युं, हवे ते ज जीवनुं प्रतिषेधरूपे निरूपण करे छे. तेनुं विवरण — शुद्ध जीव छे, टंकोत्कीर्ण छे, चिद्रूप छे एम कहेवुं ते विधि कहेवाय छे; जीवनुं स्वरूप गुणस्थान नथी, कर्म-नोकर्म जीवनां नथी, भावकर्म जीवनुं नथी एम कहेवुं ते प्रतिषेध कहेवाय छे. केवुं थतुं थकुं ज्ञान प्रगट थाय छे? ‘‘मनो ह्लादयत्’’ (मनः) अन्तःकरणेन्द्रियने (ह्लादयत्) आनन्दरूप करतुं थकुं. वळी केवुं थतुं थकुं? ‘‘विशुद्धं’’ आठ कर्मोथी रहितपणे स्वरूपरूपे परिणम्युं थकुं. वळी केवुं थतुं थकुं? ‘‘स्फु टत्’’ स्वसंवेदनप्रत्यक्ष थतुं थकुं. वळी केवुं थतुं थकुं? ‘‘आत्मारामम्’’ (आत्म) स्वस्वरूप ज छे (आरामम्) क्रीडावन जेनुं एवुं थतुं थकुं. वळी केवुं थतुं थकुं? ‘‘अनन्तधाम’’ (अनन्त) मर्यादाथी रहित छे (धाम) तेजःपुंज जेनो एवुं थतुं थकुं. वळी केवुं थतुं थकुं? ‘‘अध्यक्षेण महसा नित्योदितं’’ (अध्यक्षेण) निरावरण प्रत्यक्ष (महसा) चैतन्यशक्ति वडे (नित्योदितं) त्रिकाळ शाश्वत छे प्रताप जेनो एवुं थतुं थकुं.