कहानजैनशास्त्रमाळा ]
करे छे एवा (कोलाहलेन किम्) जे जूठा विकल्पो तेमनाथी शुं? तेनुं विवरण — कोई मिथ्याद्रष्टि जीव शरीरने जीव कहे छे, कोई मिथ्याद्रष्टि जीव आठ कर्मोने जीव कहे छे, कोई मिथ्याद्रष्टि जीव रागादि सूक्ष्म अध्यवसायने जीव कहे छे — इत्यादिरूपे अनेक प्रकारना बहु विकल्पो करे छे. हे जीव! ते बधाय विकल्पो छोड, केम के ते जूठा छे. ‘‘निभृतः सन् स्वयं एकम् पश्य’’ (निभृतः) एकाग्ररूप (सन्) थतो थको (एकम्) शुद्ध चिद्रूपमात्रनो (स्वयम्) स्वसंवेदनप्रत्यक्षपणे (पश्य) अनुभव कर. ‘‘षण्मासम्’’ विपरीतपणुं जे रीते छूटे ते रीते छोडीने. ‘‘अपि’’ वारंवार बहु शुं कहेवुं? आवो अनुभव करतां स्वरूपप्राप्ति छे, ते ज कहे छे — ‘‘ननु हृदयसरसि पुंसः अनुपलब्धिः किम् भाति’’ (ननु) हे जीव! (हृदयसरसि) मनरूपी सरोवरमां छे (पुंसः) जे जीवद्रव्य तेनी (अनुपलब्धिः) अप्राप्ति (किं भाति) शोभे छे शुं? भावार्थ आम छे के शुद्ध स्वरूपनो अनुभव करतां स्वरूपनी प्राप्ति न थाय एम तो नथी; ‘‘च उपलब्धिः’’ (च) छे तो एम ज छे के (उपलब्धिः) अवश्य प्राप्ति थाय छे. केवुं छे जीवद्रव्य? ‘‘पुद्गलात् भिन्नधाम्नः’’ (पुद्गलात्) द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मथी (भिन्नधाम्नः) भिन्न छे — चेतनरूप छे — तेजःपुंज जेनो, एवुं छे. २ – ३४.
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘अयम् जीवः इयान्’’ (अयम्) विद्यमान छे एवुं (जीवः) चेतनद्रव्य (इयान्) आटलुं ज छे. केवुं छे? ‘‘चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारः’’ (चित्-शक्ति) चेतनामात्र साथे (व्याप्त) मळेला छे (सर्वस्वसारः) दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सुख, वीर्य इत्यादि अनंत गुणो जेना एवुं छे. ‘‘अमी सर्वे अपि पौद्गलिकाः भावाः अतः अतिरिक्ताः’’ (अमी) विद्यमान छे एवा, (सर्वे अपि) द्रव्यकर्म-भावकर्म- नोकर्मरूप जेटला छे ते बधा, (पौद्गलिकाः) अचेतन पुद्गलद्रव्यथी ऊपज्या छे एवा (भावाः) अशुद्ध रागादिरूप समस्त विभावपरिणामो (अतः) शुद्धचेतनामात्र जीववस्तुथी (अतिरिक्ताः) अत्यंत भिन्न छे. आवा ज्ञाननुं नाम अनुभव कहेवाय छे. ३ – ३५.