स्फु टतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम् ।
कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तम् ।।४-३६।।✽
आत्मा अर्थात् जीवद्रव्य (आत्मनि) पोतामां (इमम् आत्मानम्) पोताने (कलयतु) निरंतर अनुभवो. केवो छे अनुभवयोग्य आत्मा? ‘‘विश्वस्य साक्षात् उपरि चरन्तं’’ (विश्वस्य) समस्त त्रैलोक्यमां (उपरि चरन्तं) सर्वोत्कृष्ट छे, उपादेय छे — (साक्षात्) एवो ज छे, वधारीने नथी कहेता. वळी केवो छे? ‘‘चारु’’ सुखस्वरूप छे. वळी केवो छे? ‘‘परम्’’ शुद्धस्वरूप छे. वळी केवो छे? ‘‘अनन्तम्’’ शाश्वत छे. हवे जे रीते अनुभव थाय छे ते ज कहे छे — ‘‘चिच्छक्तिरिक्तं सकलम् अपि अह्नाय विहाय’’ (चित्-शक्तिरिक्तं) ज्ञानगुणथी शून्य एवां (सकलम् अपि) समस्त द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मोने (अह्नाय) मूळथी (विहाय) छोडीने. भावार्थ आम छे के जेटली कोई कर्मजाति छे ते समस्त हेय छे, तेमां कोई कर्म उपादेय नथी. वळी अनुभव जे रीते थाय छे ते कहे छे — ‘‘चिच्छक्तिमात्रम् स्वं च स्फु टतरम् अवगाह्य’’ (चित्-शक्तिमात्रम्) ज्ञानगुण ते ज छे स्वरूप जेनुं एवा (स्वं च) पोताने (स्फु टतरम्) प्रत्यक्षपणे (अवगाह्य) आस्वादीने. भावार्थ आम छे के जेटला विभावपरिणामो छे ते बधाय जीवना नथी, शुद्ध चैतन्यमात्र जीव छे एवो अनुभव कर्तव्य छे. ४ – ३६.
भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः ।
नो द्रष्टाः स्युद्रर्ष्टमेकं परं स्यात् ।।५-३७।।
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