कहानजैनशास्त्रमाळा ]
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘अस्य पुंसः सर्वे एव भावाः भिन्नाः’’ (अस्य) विद्यमान छे एवा (पुंसः) शुद्ध चैतन्यद्रव्यथी (सर्वे) जेटला छे ते बधा (भावाः) भाव अर्थात् अशुद्ध विभावपरिणाम (एव) निश्चयथी (भिन्नाः) भिन्न छे — जीवस्वरूपथी निराळा छे. ते क्या भाव? ‘‘वर्णाद्याः वा रागमोहादयः वा’’ (वर्णाद्याः) एक कर्म अचेतन शुद्ध पुद्गलपिंडरूप छे ते तो जीवस्वरूपथी निराळा ज छे; (वा) एक तो एवा छे के (रागमोहादयः) विभावरूप-अशुद्धरूप छे, देखतां चेतन जेवा देखाय छे, एवा जे राग-द्वेेष-मोहरूप जीवसंबंधी परिणामो तेओ पण, शुद्ध जीवस्वरूपने अनुभवतां, जीवस्वरूपथी भिन्न छे. अहीं कोई प्रश्न करे छे के विभावपरिणामोने जीवस्वरूपथी ‘भिन्न’ कह्या, त्यां ‘भिन्न’नो भावार्थ तो हुं समज्यो नहि; ‘भिन्न’ कहेतां, ‘भिन्न’ छे ते वस्तुरूप छे के ‘भिन्न’ छे ते अवस्तुरूप छे? उत्तर आम छे के अवस्तुरूप छे.
ते कारणे ज (अन्तःतत्त्वतः पश्यतः) शुद्ध स्वरूपनो अनुभवशील छे जे जीव तेने (अमी) विभावपरिणामो (द्रष्टाः) द्रष्टिगोचर (नो स्युः) नथी थता; ‘‘परं एकं द्रष्टम् स्यात्’’ (परं) उत्कृष्ट छे एवुं (एकं) शुद्ध चैतन्यद्रव्य (द्रष्टम्) द्रष्टिगोचर (स्यात्) थाय छे. भावार्थ आम छे के वर्णादिक अने रागादिक विद्यमान देखाय छे तोपण स्वरूप अनुभवतां स्वरूपमात्र छे, तेथी विभावपरिणतिरूप वस्तु तो कांई नथी. ५-३७.
तदेव तत्स्यान्न कथंचनान्यत् ।
पश्यन्ति रुक्मं न कथंचनासिम् ।।६-३८।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘अत्र येन यत् किञ्चित् निर्वर्त्यते तत् तत् एव स्यात्, कथञ्चन न अन्यत्’’ (अत्र) वस्तुनुं स्वरूप विचारतां (येन) मूळकारणरूप वस्तुथी (यत् किञ्चित्) जे कांई कार्यनिष्पत्तिरूप वस्तुनो परिणाम (निर्वर्त्यते) पर्यायरूप नीपजे छे, (तत्) जे नीपज्यो छे ते पर्याय (तत् एव स्यात्) नीपज्यो थको जे