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सामर्थ्यथी (उच्चैः) अतिशयपणे (चकचकायते) घणो ज प्रकाशे छे. केवुं छे चैतन्य? ‘‘अनाद्यनन्तम्’’ (अनादि) जेनो आदि नथी, (अनन्तम्) जेनो अंत – विनाश नथी, एवुं छे. वळी केवुं छे चैतन्य? ‘‘अचलं’’ जेने चळता – प्रदेशकंप नथी एवुं छे. वळी केवुं छे? ‘‘स्वसंवेद्यं’’ पोताथी ज पोते जणाय छे. वळी केवुं छे? ‘‘अबाधितम्’’ अमीट (मटे नहि एवुं) छे. जीवनुं स्वरूप आवुं छे. ९ – ४१.
नामूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः ।
व्यक्तं व्यञ्जितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्ब्यताम् ।।१०-४२।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘विवेचकैः इति आलोच्य चैतन्यम् आलम्ब्यताम्’’ (विवेचकैः) जेमने भेदज्ञान छे एवा पुरुषो (इति) जे प्रकारे कहेवाशे ते प्रकारे (आलोच्य) विचारीने (चैतन्यम्) चैतन्यनो – चेतनमात्रनो (आलम्ब्यताम्) अनुभव करो. केवुं छे चैतन्य? ‘‘समुचितं’’ अनुभव करवायोग्य छे. वळी केवुं छे? ‘‘अव्यापि न’’ जीवद्रव्यथी क्यारेय भिन्न होतुं नथी, (अतिव्यापि वा) जीवथी अन्य छे जे पांच द्रव्यो तेमनाथी अन्य छे. वळी केवुं छे? ‘‘व्यक्तं’’ प्रगट छे. वळी केवुं छे? ‘‘व्यज्जितजीवतत्त्वम्’’ (व्यज्जित) प्रगट कर्युं छे (जीवतत्त्वम्) जीवनुं स्वरूप जेणे, एवुं छे. वळी केवुं छे? ‘‘अचलं’’ प्रदेशकंपथी रहित छे. ‘‘ततः जगत् जीवस्य तत्त्वं अमूर्तत्वं उपास्य न पश्यति’’ (ततः) ते कारणथी (जगत्) सर्व जीवराशि (जीवस्य तत्त्वं) जीवना निज स्वरूपने (अमूर्तत्वम्) स्पर्श, रस, गंध, वर्णगुणथी रहितपणुं (उपास्य) मानीने (न पश्यति) अनुभवतो नथी; [भावार्थ आम छे — कोई जाणशे के ‘जीव अमूर्त’ एम जाणीने अनुभव करवामां आवे छे पण ए रीते तो अनुभव नथी. जीव अमूर्त तो छे परंतु अनुभवकाळमां एम अनुभवे छे के ‘जीव चैतन्यलक्षण;’] ‘‘यतः अजीवः द्वेधा अस्ति’’ (यतः) कारण के (अजीवः) अचेतनद्रव्य (द्वेधा अस्ति) बे प्रकारनां छे. ते बे प्रकार कया छे? ‘‘वर्णाद्यैः सहितः तथा विरहितः’’ (वर्णाद्यैः) वर्ण,