कहानजैनशास्त्रमाळा ]
रस, गंध अने स्पर्शथी (सहितः) संयुक्त छे, केम के एक पुद्गलद्रव्य एवुं पण छे; (तथा विरहितः) तथा वर्ण, रस, गंध अने स्पर्शथी रहित पण छे, केम के धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, काळद्रव्य अने आकाशद्रव्य ए चार द्रव्यो बीजां पण छे, ते अमूर्तद्रव्यो कहेवाय छे. ते अमूर्तपणुं अचेतनद्रव्योने पण छे; तेथी अमूर्तपणुं जाणीने जीवनो अनुभव नथी करातो, चेतन जाणीने जीवनो अनुभव कराय छे. १० – ४२.
ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमुल्लसन्तम् ।
मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति ।।११-४३।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘ज्ञानी जनः लक्षणतः जीवात् अजीवम् विभिन्नं इति स्वयं अनुभवति’’ (ज्ञानी जनः) सम्यग्द्रष्टि जीव, (लक्षणतः) जीवनुं लक्षण चेतना तथा अजीवनुं लक्षण जड एवो मोटो भेद छे तेथी (जीवात्) जीवद्रव्यथी (अजीवम्) अजीवद्रव्य – पुद्गल आदि (विभिन्नं) सहज ज भिन्न छे, (इति) आ प्रकारे (स्वयं) स्वानुभवप्रत्यक्षपणे (अनुभवति) आस्वाद करे छे. केवुं छे अजीवद्रव्य? ‘‘उल्लसन्तम्’’ पोताना गुण-पर्यायथी प्रकाशमान छे. ‘‘तत् तु अज्ञानिनः अयं मोहः कथम् अहो नानटीति बत’’ (तत् तु) आम छे तो पछी (अज्ञानिनः) मिथ्याद्रष्टि जीवने (अयं) जे प्रगट छे एवो (मोहः) जीव-कर्मना एकत्वरूप विपरीत संस्कार (कथम् नानटीति) केम प्रवर्ती रह्यो छे (बत अहो) ए आश्चर्य छे! भावार्थ आम छे के सहज ज जीव- अजीव भिन्न छे एवुं अनुभवतां तो बराबर छे, सत्य छे; मिथ्याद्रष्टि जे एक करीने अनुभवे छे ते आवो अनुभव कई रीते आवे छे ए मोटो अचंबो छे. केवो छे मोह? ‘‘निरवधिप्रविजृम्भितः’’ (निरवधि) अनादि काळथी (प्रविजृम्भितः) संतानरूपे प्रसरी रह्यो छे. ११ – ४३.