Samaysar Kalash Tika-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 44.

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समयसार-कलश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(वसंततिलका)
अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाटये
वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः
रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्ध-
चैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः
।।१२-४४।।

खंडान्वय सहित अर्थः‘‘अस्मिन् अविवेकनाटये पुद्गलः एव नटति’’ (अस्मिन्) अनंत काळथी विद्यमान छे एवो जे (अविवेक) जीव-अजीवनी एकत्वबुद्धिरूप मिथ्या संस्कार ते-रूप छे (नाटये) धारासंतानरूप वारंवार विभावपरिणाम, तेमां (पुद्गलः) पुद्गल अर्थात् अचेतन मूर्तिमान द्रव्य (एव) निश्चयथी (नटति) अनादि काळथी नाचे छे, ‘‘न अन्यः’’ चेतनद्रव्य नाचतुं नथी. भावार्थ आम छे केचेतनद्रव्य अने अचेतनद्रव्य अनादि छे, पोतपोताना स्वरूपे छे, परस्पर भिन्न छे. आवो अनुभव प्रगटपणे सुगम छे; जेने एकत्वसंस्काररूप अनुभव छे ते अचंबो छे. एवुं केम अनुभवे छे? केम के एक चेतनद्रव्य, एक अचेतनद्रव्यए रीते अंतर तो घणुं. अथवा अचंबो पण नथी, केम के अशुद्धपणाना कारणे बुद्धिने भ्रम थाय छे. जेवी रीते धतूरो पीतां द्रष्टि विचलित थाय छे, श्वेत शंखने पीळो देखे छे, पण वस्तु विचारतां आवी द्रष्टि सहजनी तो नथी, द्रष्टिदोष छे, द्रष्टिदोषने धतूरो उपाधि पण छे; तेवी रीते जीवद्रव्य अनादिथी कर्मसंयोगरूपे मळेलुं ज चाल्युं आवे छे, मळेलुं होवाथी विभावरूप अशुद्धपणे परिणमी रह्युं छे, अशुद्धपणाना कारणे ज्ञानद्रष्टि अशुद्ध छे, ते अशुद्ध द्रष्टि वडे चेतनद्रव्यने पुद्गलकर्मनी साथे एकत्वसंस्काररूप अनुभवे छेआवो संस्कार तो विद्यमान छे, पण वस्तुस्वरूप विचारतां आवी अशुद्ध द्रष्टि सहजनी तो नथी, अशुद्ध छे, द्रष्टिदोष छे अने द्रष्टिदोषने पुद्गलपिंडरूप मिथ्यात्वकर्मनो उदय उपाधि पण छे. हवे जेवी रीते द्रष्टिदोषथी श्वेत शंखने पीळो अनुभवे छे तो पछी द्रष्टिमां दोष छे, शंख तो श्वेत ज छे, पीळो देखतां शंख तो पीळो थयो नथी; तेवी रीते मिथ्या द्रष्टिथी चेतनवस्तु अने अचेतनवस्तुने एक करीने