कहानजैनशास्त्रमाळा ]
अनुभवे छे तो पछी द्रष्टिनो दोष छे, वस्तु जेवी भिन्न छे. तेवी ज छे, एक करीने अनुभवतां एक थती नथी, केम के घणुं अंतर छे. केवुं छे अविवेकनाट्य (अर्थात् जीव-अजीवनी एकत्वबुद्धिरूप विभावपरिणाम)? ‘‘अनादिनि’’ अनादिथी एकत्व-संस्कारबुद्धि चाली आवी छे – एवुं छे. वळी केवुं छे अविवेकनाट्य? ‘‘महति’’ जेमां थोडुंक विपरीतपणुं नथी, घणुं विपरीतपणुं छे. केवुं छे पुद्गल? ‘‘वर्णादिमान्’’ स्पर्श, रस, गंध, वर्णगुणथी संयुक्त छे. ‘‘च अयं जीवः रागादि- पुद्गलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिः’’ (च अयं जीवः) अने आ जीववस्तु आवी छेः (रागादि) राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ एवा असंख्यात लोकमात्र अशुद्धरूप जीवना परिणाम — (पुद्गलविकार) अनादि बंधपर्यायथी विभावपरिणाम — तेमनाथी (विरुद्ध) रहित छे एवी, (शुद्ध) निर्विकार छे एवी (चैतन्यधातु) शुद्ध चिद्रूप वस्तु (मय) ते-रूप छे (मूर्तिः) सर्वस्व जेनुं एवी छे. भावार्थ आ प्रमाणे छे के जेम पाणी कादव मळतां मेलुं छे, त्यां ते मेलापणुं रंग छे, ते रंगने अंगीकार नहि करतां बाकी जे कांई छे ते पाणी ज छे; तेम जीवने कर्मबंधपर्यायरूप अवस्थामां रागादि भाव रंग छे, ते रंगने अंगीकार नहि करतां बाकी जे कांई छे ते चेतनधातुमात्र वस्तु छे. आनुं नाम शुद्धस्वरूप-अनुभव जाणवुं, के जे सम्यग्द्रष्टिने होय छे. १२ – ४४.
जीवाजीवौ स्फु टविघटनं नैव यावत्प्रयातः ।
ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे ।।१३-४५।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘ज्ञातृद्रव्यं तावत् स्वयं अतिरसात् उच्चैः चकाशे’’ (ज्ञातृद्रव्यं) चेतनवस्तु (तावत्) वर्तमान काळे (स्वयं) पोतानी मेळे (अतिरसात्) अत्यंत पोताना स्वाद सहित (उच्चैः) सर्व प्रकारे (चकाशे) प्रगट थइ. शुं करीने? ‘‘विश्वं व्याप्य’’ (विश्वं) समस्तज्ञेयोने (व्याप्य) प्रत्यक्षपणे प्रतिबिंबित करीने अर्थात् जाणीने.