कहानजैनशास्त्रमाळा ]
द्रव्यनो कर्ता अन्य द्रव्य उपचारमात्रथी पण नथी, कारण के एक सत्त्व नथी, भिन्न सत्त्व छे. ‘‘व्याप्यव्यापकभावसम्भवम् ऋते कर्तृकर्मस्थितिः का’’ (व्याप्यव्यापकभाव) परिणाम-परिणामीमात्र भेदनी (सम्भवं) उत्पत्ति (ऋते) विना (कर्तृकर्मस्थितिः का) ‘ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मनो कर्ता जीवद्रव्य’ एवो अनुभव घटतो नथी, कारण के जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य एक सत्ता नथी, भिन्न सत्ता छे. आवा ज्ञानसूर्य वडे मिथ्यात्वरूप अंधकार मटे छे अने जीव सम्यग्द्रष्टि थाय छे. ४ – ४९.
व्याप्तृव्याप्यत्वमन्तः कलयितुमसहौ नित्यमत्यन्तभेदात् ।
विज्ञानार्चिश्चकास्ति क्रकचवददयं भेदमुत्पाद्य सद्यः ।।५-५०।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘यावत् विज्ञानार्चिः न चकास्ति तावत् अनयोः कर्तृकर्मभ्रममतिः अज्ञानात् भाति’’ (यावत्) जेटलो काळ (विज्ञानार्चिः) भेदज्ञानरूप अनुभव (न चकास्ति) प्रगट थतो नथी (तावत्) तेटलो काळ (अनयोः) जीव-पुद्गल विषे (कर्तृ-कर्म-भ्रममतिः) ‘ज्ञानावरणादिनो कर्ता जीवद्रव्य’ एवी छे जे मिथ्या प्रतीति ते (अज्ञानात् भाति) अज्ञानपणाथी छे; वस्तुनुं स्वरूप एवुं तो नथी. कोई प्रश्न करे छे के ‘ज्ञानावरणादिकर्मनो कर्ता जीव’ ते अज्ञानपणुं छे, ते कई रीते छे? ‘‘ज्ञानी पुद्गलः च व्याप्तृव्याप्यत्वम् अन्तः कलयितुम् असहौ’’ (ज्ञानी) ज्ञानी अर्थात् जीववस्तु (च) अने (पुद्गलः) ज्ञानावरणादि कर्मपिंड (व्याप्तृ-व्याप्यत्वम्) परिणामी-परिणामभावे (अन्तः कलयितुम्) एक संक्रमणरूप थवाने (असहौ) असमर्थ छे, केम के ‘‘नित्यम् अत्यन्तभेदात्’’ (नित्यम्) द्रव्यस्वभावथी (अत्यन्तभेदात्) अत्यन्त भेद छे. विवरण – जीवद्रव्यना भिन्न प्रदेश चैतन्यस्वभाव, पुद्गल-द्रव्यना भिन्न प्रदेश अचेतनस्वभाव, — ए रीते भेद घणो छे. केवो छे ज्ञानी? ‘‘इमां स्वपरपरिणतिं जानन् अपि’’ (इमां) प्रसिद्ध छे एवां (स्व) पोतानां अने (पर) समस्त ज्ञेयवस्तुओनां (परिणतिं) द्रव्य-गुण-पर्यायनो अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यनो (जानन्) ज्ञाता छे. (अपि)