Samaysar Kalash Tika-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 57-58.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

कर्ताकर्म अधिकार
५९
(वसन्ततिलका)
अज्ञानतस्तु सतृणाभ्यवहारकारी
ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः
पीत्वा दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया
गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम्
।।१२-५७।।

खंडान्वय सहित अर्थः‘‘यः अज्ञानतः तु रज्यते’’ (यः) जे कोई मिथ्याद्रष्टि जीव (अज्ञानतः तु) मिथ्या द्रष्टिथी ज (रज्यते) कर्मनी विचित्रतामां पोतापणुं जाणीने रंजायमान थाय छे ते, [ते जीव केवो छे?] ‘‘सतृणाभ्यवहारकारी’’ (सतृण) घास सहित (अभ्यवहारकारी) आहार करे छे. भावार्थ आम छे के जेम हाथी अन्न- घास मळेलां ज बराबर जाणीने खाय छे, घासनो अने अन्ननो विवेक करतो नथी, तेम मिथ्याद्रष्टि जीव कर्मनी सामग्रीने पोतानी जाणे छे, जीवनो अने कर्मनो विवेक करतो नथी. केवो छे? ‘‘किल स्वयं ज्ञानं भवन् अपि’’ (किल स्वयं) निश्चयथी स्वरूपमात्रनी अपेक्षाए (ज्ञानं भवन् अपि) जोके ज्ञानस्वरूप छे. वळी जीव केवो छे? ‘‘असौ नूनम् रसालम् पीत्वा गां दुग्धम् दोग्धि इव’’ (असौ) आ छे जे विद्यमान जीव (नूनम्) निश्चयथी (रसालम्) शिखंड (पीत्वा) पीने एम माने छे के (गां दुग्धम् दोग्धि इव) जाणे गायनुं दूध पीए छे. शानाथी? ‘‘दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया’’ (दधीक्षु) शिखंडमां (मधुराम्लरस) मीठा अने खाटा स्वादनी (अतिगृद्धया) अतिशय आसक्तिथी. भावार्थ आम छे के स्वादलंपट थयो थको शिखंड पीए छे, स्वादभेद करतो नथी. एवुं निर्भेदपणुं माने छे के जेवुं गायनुं दूध पीतां निर्भेदपणुं मानवामां आवे छे. १२५७.

(शार्दूलविक्रीडित)
अज्ञानात् मृगतृष्णिकां जलधिया धावन्ति पातुं मृगा
अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः
अज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरङ्गाब्धिवत्
शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्रीभवंत्याकुलाः
।।१३-५८।।