Samaysar Kalash Tika-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 59.

< Previous Page   Next Page >


Page 60 of 269
PDF/HTML Page 82 of 291

 

६०

समयसार-कलश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

खंडान्वय सहित अर्थः‘‘अमी स्वयम् शुद्धज्ञानमयाः अपि अज्ञानात् आकुलाः कर्त्रीभवन्ति’’ (अमी) सर्व संसारी मिथ्याद्रष्टि जीव (स्वयम्) सहजथी (शुद्धज्ञानमयाः) शुद्धस्वरूप छे (अपि) तोपण (अज्ञानात्) मिथ्या द्रष्टिने लीधे (आकुलाः) आकुलित थता थका (कर्त्रीभवन्ति) बळजोरीथी ज कर्ता थाय छे. शा कारणथी? ‘‘विकल्पचक्रकरणात्’’ (विकल्प) अनेक रागादिना (चक्र) समूहने (करणात्) करवाथी. कोनी माफक? ‘‘वातोत्तरङ्गाब्धिवत्’’ (वात) पवनथी (उत्तरङ्ग) डोलता-ऊछळता (अब्धिवत्) समुद्रनी माफक. भावार्थ आम छे के जेवी रीते समुद्र स्वरूपे निश्चळ छे, पवनथी प्रेरित थईने ऊछळे छे अने ऊछळवानो कर्ता पण थाय छे, तेवी रीते जीवद्रव्य स्वरूपथी अकर्ता छे, कर्मसंयोगथी विभावरूपे परिणमे छे तेथी विभावपणानो कर्ता पण थाय छे; परन्तु अज्ञानथी, स्वभाव तो नथी. द्रष्टान्त कहे छे‘‘मृगाः मृगतृष्णिकां अज्ञानात् जलधिया पातुं धावन्ति’’ (मृगाः) जेम हरणो (मृगतृष्णिकां) मृगजळने (अज्ञानात्) मिथ्या भ्रान्तिथी (जलधिया) पाणीनी बुद्धिए (पातुं धावन्ति) पीवा माटे दोडे छे अने ‘‘जनाः रज्जौ तमसि अज्ञानात् भुजगाध्यासेन द्रवन्ति’’ (जनाः) जेम मनुष्य जीवो (रज्जौ) दोरडामां (तमसि) अंधकार विषे (अज्ञानात्) भ्रान्तिने लीधे (भुजगाध्यासेन) सर्पनी बुद्धिथी (द्रवन्ति) डरे छे. १३५८.

(वसंततिलका)
ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यो
जानाति हंस इव वाःपयसोर्विशेषम्
चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो
जानीत एव हि करोति न किञ्चनापि
।।१४-५९।।

खंडान्वय सहित अर्थः‘‘यः तु परात्मनोः विशेषम् जानाति’’ (यः तु) जे कोई सम्यग्द्रष्टि जीव (पर) द्रव्यकर्मपिंड अने (आत्मनोः) शुद्ध चैतन्यमात्रनुं (विशेषम्) भिन्नपणुं (जानाति) अनुभवे छे. शुं करीने अनुभवे छे? ‘‘ज्ञानात् विवेचकतया’’ (ज्ञानात्) सम्यग्ज्ञान द्वारा (विवेचकतया) लक्षणभेद करीने. तेनुं विवरणशुद्ध चैतन्यमात्र जीवनुं लक्षण, अचेतनपणुं पुद्गलनुं लक्षण; तेथी जीव अने पुद्गल