कहानजैनशास्त्रमाळा ]
भिन्न भिन्न छे एवो भेद भेदज्ञान कहेवाय छे. द्रष्टान्त कहे छे — ‘‘वाःपयसोः हंसः इव’’ (वाः) पाणी (पयसोः) दूध (हंसः इव) हंसनी माफक. भावार्थ आम छे के जेम हंस दूध-पाणी भिन्न भिन्न करे छे तेम जे कोई जीव-पुद्गलने भिन्न भिन्न अनुभवे छे ‘‘सः हि जानीत एव, किञ्चनापि न करोति’’ (सः हि) ते जीव (जानीत एव) ज्ञायक तो छे, (किञ्चनापि) परमाणुमात्रने पण (न करोति) करतो तो नथी. केवो छे ज्ञानी जीव? ‘‘सः सदा अचलं चैतन्यधातुं अधिरूढः’’ ते सदा निश्चल चैतन्यधातुमय आत्माना स्वरूपमां द्रढताथी रह्यो छे. १४ – ५९.
ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः ।
क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तृभावम् ।।१५-६०।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘ज्ञानात् एव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः क्रोधादेः च भिदा प्रभवति’’ (ज्ञानात् एव) शुद्ध स्वरूपमात्र वस्तुनो अनुभव करतां ज (स्वरस) चेतनास्वरूपथी (विकसत्) प्रकाशमान छे, (नित्य) अविनश्वर छे, — एवुं जे (चैतन्यधातोः) शुद्ध जीवस्वरूप तेनुं अने (क्रोधादेः च) समस्त अशुद्ध चेतनारूप रागादि परिणामनुं (भिदा) भिन्नपणुं (प्रभवति) थाय छे. भावार्थ आम छे के – (प्रश्नः) साम्प्रत (हालमां) जीवद्रव्य रागादि अशुद्ध चेतनारूपे परिणम्युं छे त्यां तो एम प्रतिभासे छे के ज्ञान क्रोधरूप परिणम्युं छे तेथी ज्ञान भिन्न, क्रोध भिन्न – एवुं अनुभववुं घणुं ज कठण छे. उत्तर आम छे के साचे ज कठण छे, परंतु वस्तुनुं शुद्ध स्वरूप विचारतां भिन्नपणारूप स्वाद आवे छे. केवुं छे भिन्नपणुं? ‘‘कर्तृभावं भिन्दती’’ (कर्तृभावं) ‘कर्मनो कर्ता जीव’ एवी भ्रान्ति, तेने (भिन्दती) मूळथी दूर करे छे. द्रष्टान्त कहे छे – ‘‘एव ज्वलनपयसोः औष्ण्यशैत्यव्यवस्था ज्ञानात् उल्लसति’’ (एव) जेम (ज्वलन) अग्नि अने (पयसोः) पाणीना (औष्ण्य) उष्णपणा अने (शैत्य) शीतपणानो (व्यवस्था) भेद (ज्ञानात्) निजस्वरूपग्राही ज्ञानथी